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________________ जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन ११६ कुंडिलगोत्रीय स्थविर काद्धि से वेसवाडिय गण निकला। थेरेहितो ण इसिगहितोणं कावहितो वासिटठसगोत्तेहितो तत्थ णं माणवगणं नामं गणं निग्गए। वशिष्ठगोत्रीय, काकंदीय स्थविर ऋषिगुप्त से माणव गण निकला। थेरेहितो णं सुठ्ठिय सुपडिबुहितो कोडियकाकन्दएहितो वग्धावच्चसगोहितो एत्थ णं कोडियगणं नामंगणं निग्गए। कोटिककाकंदकाभिध व्याघ्रापत्य गोत्रीय स्थविर सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध से कोडिय गण निकला । भगवान महावीर ने नौ गणों में सातवें का नाम 'कामइढिय था। उसको छोड़ देने पर अवशेष नाम ज्यों के त्यों हैं । थोड़ा बहुत जो कहीं-कहीं वर्णात्मक भेद दिखाई देता है, वह केवल भाषात्मक है। अपने समय की जीवित-जनप्रचलित भाषा होने के कारण प्राकृत की ये सामान्य प्रवृत्तियाँ हैं। प्रश्न उपस्थित होता है कि भगवान महावीर के गणों का गोदास गण, बलिस्सहगण आदि के रूप में जो नामकरण हुआ, उसका आधार क्या था ? यदि व्यक्ति-विशेष के नाम के आधार पर गणों के नाम होते तो क्या यह उचित नहीं होता कि उन-उन गणों के व्यवस्थापकों-गणधरों के नाम पर वैसा होता? गणस्थित किन्हीं विशिष्ट साधुओं के नामों के आधार पर ये नाम दिये जाते तो उन विशिष्ट साधुओं के नाम आगम वाङ्मय में, जिसका ग्रथन गणधरों द्वारा हुआ, अवश्य मिलते । पर ऐसा नहीं है । समझ में नहीं आता, फिर ऐसा क्यों हुआ ! विद्वानों के लिए यह चिन्तन का विषय है। ऐसी भी सम्भावना की जा सकती है कि उत्तरवर्ती समय में भिन्न भिन्न श्रमण-स्थविरों के नाम से जो आठ समुदाय या गण चले, उन (गणों) के नाम भगवान् महावीर के गणों के साथ भी जोड़ दिये गये हों। एक गण जो बाकी रहता है, उसका नामकरण स्यात् स्थविर आर्य सुहस्ती के बारह अंतेवासियों में से चौथे कामिइढि नामक श्रमण-श्रेष्ठ के नाम पर कर दिया गया हो, जो अपने समय के सुविख्यात आचार्य थे, जिनसे वेसवाडिय नामक गण निकला था। स्पष्टतया कुछ भी अनुमान नहीं लगाया जा सकता—ऐसा क्यों किया गया। हो सकता है, उत्तरवर्ती गणों पर प्रतिष्ठापन्नता का मुलम्मा चढ़ाने के लिए यह स्थापित करने का उपक्रम रहा हो कि भगवान् महावीर के गण भी इन्हीं नामों से अभिहित होते थे। एक सम्भावना हम और कर सकते हैं-यद्यपि है तो बहुत दूरवर्ती, स्यात् भगवान महावीर के नो गणों में से प्रत्येक में एक-एक ऐसे उकृष्ट साधना-निरत, महातपा, परमज्ञानी, ध्यानयोगी साधक रहे हों, जो जन-सम्पर्क से दूर रहने के नाते बिल्कुल प्रसिद्धि में नहीं आये, पर जिनकी उच्चता और पवित्रता असाधारण तथा स्पृहणीय थी। उनके प्रति श्रद्धा, आदर और बहुमान दिखाने के लिए उन गणों का नामकरण जिन-जिनमें वे थे, उनके नामों से कर दिया गया हो। उत्तरवर्ती समय में संयोग कुछ ऐसे बने हों कि उन्हीं नामों के आचार्य हुए हों, जिनमें अपने नामों के साथ प्राक्तन गणों के नामों का साम्य देखकर अपने-अपने नाम से नये गण प्रवर्तित करने का उत्साह जागा हो। रामबाग hair -:-.. hinar ne.chaineKRA.Asunee aanindranatantammansoorandu आपापभिरापार्यप्रवर अभी श्रीमानन्द श्रीआनन्द wamAAMmma amwwmainraamanamomamarommamimire Minvanya Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jairnelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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