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________________ जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन ११७ "तदनन्तर जस आदि अनेक व्यक्तियों को उन्होंने उपसम्पदा दी। जिनमें से विशिष्ट संस्कार सम्पन्न साधक शीघ्र ही अर्हत् हो गये। यों तब भगवान सहित इकसठ अर्हत थे।"3 ___भगवान बुद्ध ने उन्हें धर्म-प्रसार के लिए विहार करने का निर्देश देते हुए कहा-भिक्षओ ! बहुत जनों के हित के लिए, सुख के लिए, लोगों की अनुकम्पा के लिए, देवताओं और मनुष्यों के लाभ, हित और सुख के लिए विहार करो।"४ भिक्षु विहार के लिये निकल पड़े । जन-जन को धर्म का सन्देश दिया। अनेक मनुष्य भिक्षु-जीवन स्वीकार करने को तत्पर हुए। दीक्षित करने का अधिकार भिक्षुओं को नहीं था। वे उन सबके साथ भगवान के पास आए। इतने सारे दीक्षार्थियों को देखकर भगवान मन में वितर्कणा करने लगे। "इतने भिक्ष नाना दिशाओं से, नाना जनपदों से प्रव्रज्यापेक्षी, उपसम्पदापेक्षी लोगों को यह सोचकर कि भगवान इन्हें प्रव्रज्या देंगे, उपसम्पदा देंगे, लाते हैं । इससे भिक्षुओं को तथा प्रव्रज्या व उपसम्पदा चाहने वालों को क्लान्ति होती है। इसलिए अच्छा हो, मैं भिक्षुओं को अनुज्ञा दे दूं-भिक्षुओ अब तुम्हीं उन-उन दिशाओं में, जनपदों में प्रव्रज्या और उपसम्पदा देते रहो ।"५ यों प्रव्रज्या और उपसम्पदा देने का अधिकार जो भगवान बुद्ध के अपने हाथ में था, सब भिक्षुओं को दे दिया गया। ___ आगे चलकर बौद्ध धर्म उत्तरोत्तर प्रचार-प्रधान होता गया। जनपदों व दिशाओं में, भिन्न-भिन्न नगरों तथा प्रान्तों में भिक्षु जाते । दीक्षा देने का प्रतिबन्ध हट गया था । बिना रोक-टोक लोगों को दीक्षित करते । फलतः बौद्ध धर्म फैला तो खूब पर उसमें कुण्ठा व्याप्त होने लगी, नियमों की कठिनता में शैथिल्य आने लगा। प्रान्त-प्रान्त और गाँव-गाँव में उसके भिन्न-भिन्न स्वरूप दष्टिगोचर होने लगे। अधिकार, कर्तव्य, अनुशासन कोई भी अधिनायक या प्रधान अपने-अपने संगठन के समग्र कार्य स्वयं संचालित कर सके, यह सम्भव नहीं होता। अतः अपने अधीनस्थ व्यक्तियों को कुछ एक कार्यों के अधिकार देना आवश्यक होता है । जो अधिकार पाते हैं, उनमें अधिकार-प्राप्ति के साथ ही दृढ़ कर्तव्य-भावना जागनी चाहिए। यदि अधिकार और कर्तव्य समन्वित रूप में या सामंजस्य पूर्वक चलें तो व्यवस्था स्वस्थ बनी रहती है। जहाँ उनका समन्वय टूट जाता है, व्यवस्था दुर्बल हो जाती है। व्यवस्था की दुर्बलता में उच्छृखलता का पनपना स्वाभाविक है । ऐसी स्थिति में अनुशासन सफल सिद्ध नहीं होता। अधिकार का यथार्थ उपयोग और कर्तव्य-बुद्धि जहाँ होती है, वहीं अनुशासन कारगर होता है। इनके मिट जाने पर अनुशासन ओजरहित तथा निष्फल हो जाता है। वस्तुतः अधिकार, कर्तव्य और अनुशासन-इन दोनों का परस्पर अव्यवहित सम्बन्ध है। ३. महावग्ग १. ६. ३१ ४. महावग्म १. १०. ३२ ५. महावग्ग १. ११. ३४ MAAOMMEWALAnand AmandalaseenawinatanAmAAAAADIBABAmale wranammamimammmmmarimmorontroiewtainment MAMMAR Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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