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________________ जैनधर्म का सांस्कृतिक मूल्यांकन ११३ महात्मा बनने की, आत्मा को परमात्मा बनाने की आस्था का बीज छिपा हुआ है । देववाद के नाम पर अपने को अक्षम और निर्बल समझी जाने वाली जनता को किसने आत्म जागृति का सन्देश दिया ? किसने उसके हृदय में छिपे हुए पुरुषार्थ को जगाया ? किसने उसे अपने भाग्य का विधाता बनाया ? जैनधर्म की यह विचारधारा युगों बाद आज भी बुद्धिजीवियों की धरोहर बन रही है, संस्कृति को वैज्ञानिक दृष्टि प्रदान कर रही है । यह कहना भी कि जैनधर्म निरा निवृत्तिमूलक है, ठीक नहीं है । जीवन के विधान पक्ष को भी उसने महत्व दिया है । इस धर्म के उपदेशक तीर्थंकर लौकिक अलौकिक वैभव के प्रतीक हैं । देहिक दृष्टि से वे अनन्त बल, अनन्त सौन्दर्य और अनन्त पराक्रम के धनी होते हैं । इन्द्रादि मिलकर उनके पंच कल्याणक महोत्सवों का आयोजन करते हैं । उपदेश देने का उनका स्थान ( समवसरण) कलाकृतियों से अलंकृत होता है । जैनधर्म ने जो निवृत्तिमूलक बातें कही हैं, वे केवल उच्छृंखलता और असंयम को रोकने के लिए ही हैं । जैन धर्म की कलात्मक देन अपने आप में महत्वपूर्ण और अलग से अध्ययन की अपेक्षा रखती है । वास्तुकला के क्षेत्र में विशालकाय कलात्मक मन्दिर, मेरुपर्वत की रचना, नन्दीश्वर द्वीप व समवसरण की रचना, मानस्तम्भ, चैत्य, स्तूप आदि उल्लेखनीय हैं। मूर्तिकला में विभिन्न तीर्थंकरों की मूर्तियों को देखा जा सकता है । चित्रकला में भित्तिचित्र, ताड़पत्रीय चित्र, काष्ठचित्र, लिपिचित्र, वस्त्र पर चित्र आश्चर्य में डालने वाले हैं । इस प्रकार निवृत्ति और प्रवृत्ति का समन्वय कर जैन धर्म ने संस्कृति को लचीला बनाया है । उसकी कठोरता को कला की बाँह दी है तो उसकी कोमलता को संयम का आवरण । इसी लिए वह आज भी जीती-जागती है । आधुनिक भारत के नवनिर्माण में योग : आधुनिक भारत के नवनिर्माण की सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और आर्थिक प्रवृत्तियों में जैन धर्मावलम्बियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है । अणुव्रत आन्दोलन इसी चेतना का प्रतीक है । अधिकांश सम्पन्न जैन श्रावक अपनी आय का एक निश्चित भाग लोकोपकारी प्रवृत्तियों में व्यय करने के व्रती रहे हैं । जीवदया, पशुबलि निषेध, स्वधर्मी वात्सल्यफंड, विधवाश्रम, वृद्धाश्रम, जैसी अनेक प्रवृत्तियों के माध्यम से असहाय लोगों को सहायता मिली है। समाज में निम्न और घृणित समझे जाने वाले खटीक जाति के भाइयों में प्रचलित कुव्यसनों को मिटा कर उन्हें सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा देने वाला धर्मपाल प्रवृत्ति का रचनात्मक कार्यक्रम अहिंसक समाज रचना की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है । लौकिक शिक्षण के साथ-साथ नैतिक शिक्षण के लिए देश के विभिन्न क्षेत्रों में कई जैन शिक्षण संस्थायें, स्वाध्याय-शिविर और छात्रावास कार्यरत हैं। निर्धन और मेधावी छात्रों को अपने शिक्षण में सहायता पहुँचाने के लिए व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर बने कई धार्मिक और पारमार्थिक ट्रस्ट हैं, जो छात्रवृत्तियाँ और ऋण देते हैं । जन स्वास्थ्य के सुधार की दिशा में भी जैनियों द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में कई अस्पताल और औषधालय खोले गये हैं, जहाँ रोगियों को निःशुल्क तथा रियायती दरों पर चिकित्सा सुविधा प्रदान की जाती है । Jain Education International आचार्य प्रवर mebensver आदि www.y For Private & Personal Use Only lo 疯 प्रवरुप अभिनंदन www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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