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________________ जैनधर्म का सांस्कृतिक मूल्यांकन १०७ IMA) ANSI या कर उसे साध्वियों का नेतृत्व प्रदान किया। नारी को दब्बू, आत्मभीरु और साधना क्षेत्र में बाधक नहीं माना गया । उसे साधना में पतित पुरुष को उपदेश देकर संयम-पथ पर लाने वाली प्रेरक शक्ति के रूप में देखा गया। राजुल ने संयम से पतित रथनेमि को उद्बोधन देकर अपनी आत्मशक्ति का ही परिचय नहीं दिया, वरन् तत्वज्ञान का पांडित्य भी प्रदर्शित किया। सांस्कृतिक समन्वय और भावनात्मक एकता: जैन धर्म ने सांस्कृतिक समन्वय और एकता की भावना को भी बलवती बनाया। यह समन्वय विचार और आचार दोनों क्षेत्रों में देखने को मिलता है। विचार-समन्वय के लिए अनेकान्तदर्शन की देन अत्यन्त महत्वपूर्ण है । भगवान् महावीर ने इस दर्शन की मूल भावना का विश्लेषण करते हुए सांसारिक प्राणियों को बोध दिया-किसी बात को, सिद्धान्त को एक तरफ से मत देखो, एक ही तरह उस पर विचार मत करो। तुम जो कहते हो वह सच होगा, पर दूसरे जो कहते हैं, वह भी सच हो सकता है। इसलिए सुनते ही भड़को मत, वक्ता के दृष्टिकोण से विचार करो। . आज संसार में जो तनाव और द्वन्द्व है वह दूसरों के दृष्टिकोण को न समझने या विपर्यय रूप से समझने के कारण है। अगर अनेकान्तवाद के आलोक में सभी राष्ट्र और व्यक्ति चिन्तन करने लग जायें तो झगड़े की जड़ ही न रहे । संस्कृति के रक्षण और प्रसार में जैनधर्म की यह देन अत्यन्त महत्वपूर्ण है । आचार-समन्वय की दिशा में मुनि-धर्म और गृहस्थ-धर्म की व्यवस्था दी है। प्रकृति और निवत्ति का सामंजस्य किया गया है । ज्ञान और क्रिया का, स्वाध्याय और सामायिक का सन्तुलन इसीलिए आवश्यक माना गया है। मुनिधर्म के लिए महाव्रतों के परिपालन का विधान है। वहाँ सर्वथा-प्रकारेण हिंसा, झठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह के त्याग की बात कही गई है । गृहस्थधर्म में अणुव्रतों की व्यवस्था दी गई है, जहाँ यथाशक्य इन आचार नियमों का पालन अभिप्रेत है। प्रतिमाधारी श्रावक वानप्रस्थाश्रमी की तरह माना जा सकता है। सांस्कृतिक एकता की दृष्टि से जैनधर्म का मूल्यांकन करते समय वह स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि उसने सम्प्रदायवाद, जातिवाद, प्रान्तीयतावाद आदि सभी मतभेदों को त्याग कर राष्ट्र-देवता को बड़ी उदार और आदर की दृष्टि से देखा है। प्रत्येक धर्म के विकसित होने के कुछ विशिष्ट क्षेत्र होते हैं। उन्हीं दायरों में वह धर्म बंधा हुआ रहता है पर जैनधर्म इस दृष्टि से किसी जनपद या प्रान्त विशेष में ही बंधा हुआ नहीं रहा । उसने भारत के किसी एक भाग विशेष को ही अपनी श्रद्धा का, साधना का और चिन्ता का क्षेत्र नहीं बनाया। वह सम्पूर्ण राष्ट्र को अपना मानकर चला। धर्म का प्रचार करने वाले विभिन्न तीर्थंकरों की जन्मभूमि, दीक्षास्थली, तपोभमि, निर्वाणस्थली आदि अलग-अलग रही है। भगवान महावीर विदेह (उत्तर बिहार) में उत्पन्न हुए तो उनका साधना क्षेत्र व निर्वाण स्थल मगध (दक्षिण बिहार) रहा । तेइसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ का जन्म तो वाराणसी में हुआ पर उनका निर्वाण स्थल बना सम्मेदशिखर । प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव अयोध्या में जन्मे, पर उनकी तपोभूमि रही कैलाश पर्वत और भगवान् अरिष्टनेमि का कर्म व धर्म क्षेत्र रहा गुजरात । भूमिगत सीमा की दृष्टि से जैनधर्म सम्पूर्ण KEEERS... 圖 MARATHIndanamaAANJANAJABADASANASAMBANANADAALAAJasraDAIJAADARJANAINAINAMMINIAAIAAJAAAAJASACRAIADASAALAAMIAL SNINया Ma आचार्य अनिल श्रीआनन्दसन्धाश्रीआनन्द आन्थ५2 साया - mometenanmainamammammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmonomiranammer Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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