SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 613
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य अत्राचार्याय श्रीआनन्दग्रन्थश्राआनन्दान्थर and प्राकृत भाषा और साहित्य टा रेखा-चित्र द्वारा उर्वशी को अंकित किया जा सकता है। अजन्ता की गुफाओं में इस प्रकार के कई चित्र पाये जाते हैं। कवि कहता है: सुर सुन्दरि जहण भरालस पीणुत्तुंग घणस्थझी, थिरजोव्वण तणुसरीरि हंसगई। गअणुज्जल काणणें मिअलोअणि भमंती दिट्ठी पइँ तह विरह समुइंतरें उतारहि मई॥-४१५६ अर्थात् "नितम्बों के भारी होने के कारण धीरे-धीरे चलने वाली और उतुग एवं पीनस्तनों वाली, चिरयुवा, कृशकटिवाली, हंस जैसी गतिवाली उस मृगनयनी उर्वशी को यदि तुमने इस आकाश के समान उज्ज्वल वन में घूमते हुए देखा हो तो उसका पता बताकर मुझे इस विरहसागर से उबार लो।" उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि महाकवि कालिदास ने गहन भावनाओं की अभिव्यक्ति के हेतु प्राकृत-पद्यों का प्रयोग किया है। ये पद्य महाकवि द्वारा ही विरचित हैं । इसकी पुष्टि अनेक विद्वानों के कथन से होती है। श्री चन्द्रबली पाण्डेय ने गहन शोध-खोज के बाद यह निष्कर्ष निकाला है- “यह और कुछ नहीं, राजा के स्वयं जीवन की छाया है, जो वासना के मुखर हो उठने से, 'प्राकृत' में फूट निकली हैं। कालिदास की इस कला को पकड़ पाना तो दूर रहा, लोगों ने इसे क्षेपक बना दिया। सोचा इतना भी नहीं कि कवि गुरु के अतिरिक्त यह सूझता भी किसे, जो यहाँ जोड़ दिखाता। निश्चय ही यह अपूर्व नाटक दत्तचित्त हो सुनने का है, कुछ किसी अंश को ले उड़ने का नहीं। धीरज धर ध्यान से सुनें तो सारी गुत्थी आप ही सुलझ जाय और 'प्राकृत' का कारण भी आप ही व्यक्त हो जाय । सन्दर्भ एवं भावपृष्ठभूमि के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि विरह की वास्तविक अभिव्यञ्जना के लिए' इन प्राकृत-पद्यों की आवश्यकता है । महाकवि कालिदास के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति द्वारा उक्त साँचे में ये पद्य फिट नहीं किये जा सकते। इन पद्यों की भाषा अपभ्रंश के निकट है और छन्द भी अपभ्रंश-साहित्य का व्यवहृत हुआ है। हमने यहाँ भाषा-वैज्ञानिक एवं व्याकरण सम्बन्धी विवेचन प्रस्तुत न कर केवल काव्य मूल्य पर ही प्रकाश डालने का प्रयास किया है। अपभ्रंश (प्राकृत का एक परवर्ती रूप) भाषा के इन पद्यों में कवि ने अपनी प्रवृत्ति के अनुसार उपमालंकार की भी योजना की है। प्रायः सभी पद्यों में उपमान निस्यूत है। हम यहाँ उक्त पद्यों के कतिपय उपमानों के सौन्दर्य पर प्रकाश डालेंगे। काव्य मूल्यों की दृष्टि से इन समस्त पद्यों में कई विशेषताएँ उपलब्ध होती हैं । कवि ने शब्दों का चयन इतनी कुशलता से किया है कि संगीत तत्त्व का सृजन स्वयमेव होता गया है। विरह की अभिव्यञ्जना के लिये शब्दों का जितना मधुर और कोमल होना आवश्यक है उतना ही उनका नियोजन भी अपेक्षित है। कुशल कवि का शब्द-नियोजन ही विरह को अभिव्यक्त करता जाता है। नेपथ्य से आने वाली संगीत ध्वनियों, वर्णों एवं शब्दों का नियोजन बड़ी ही कुशलता से किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि विरह शरद कालीन नद के प्रवाह के समान स्वयं प्रवाहित हो रहा है। निम्न उदाहरण दृष्टव्य है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy