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________________ प्राकृत अपभ्रंश पथों का काव्यमूल्यांकन ६५ खुलते ही उसे मेघ का दर्शन होता है। वह बिजली को प्रिया समझकर उसका पीछा करता है और उसकी मानसिक उद्विग्नता बढ़ती जाती है। महाकवि ने राजा की इस मनोदशा का बड़ा ही सजीव चित्रण किया है । यथा : गहणं गईदगाहो पिजविरहुम्मा अपअलिअ विजारो विes तरकुसुम किसलय भूमिअणिअदेह परमारो ॥ - ४१५ अर्थात् यह गजराज अपनी प्रिया के वियोग में पागल बनकर वहाँ अपनी मनोव्यथा को प्रकट करने के हेतु वृक्षों के पुष्पों एवं कोमल पत्तों से अपने शरीर को सजा रहा है । और उद्विग्न-सा गहनवन में प्रवेश कर रहा है। इस प्रकार कवि ने पुरुरवा को गजराज के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया है और इसकी तीव्र व्यञ्जना पुनः हंस का प्रतीक प्रस्तुत करके की है हिअआहि अपि दुखओ सरवरए घुदपक्खओ । बाहोग्गअ णअणओ तम्मइ हंस जुआणओ ॥ - वही ४।६ अर्थात् यह युवा हंस अपनी प्यारी के विछोह में पंख फड़फड़ाता हुआ आँखों में आँसू भरे हुए सरोवर में बैठा सिसक रहा है । इस प्रकार कवि ने हंस के रूप में वियोगी पुरुरवा को उपस्थित किया है। कवि पुरुरवा की मनोव्यथा एवं घबराहट को प्रस्तुत करता हुआ नेपथ्य से ध्वनि कराता है कि "यह तो अभी-अभी बरसने वाला बादल है, राक्षस नहीं, इसमें यह खिंचा हुआ इन्द्र का धनुध है राक्षस का नहीं और टप टप बरसने वाले ये वाण नहीं जलबिन्दु हैं, एवं यह जो कसौटी पर बनी हुई सोने की रेखा के समान चमक रही है, यह मेरी प्रिया उवंशी नहीं, विद्युरेखा है। 7 संस्कृत पद्य में निरूपित इस शंकास्पद स्थिति का निराकरण कवि प्राकृत-पद्य द्वारा करता है। और वह अपनी मुग्धावस्था को यथार्थ रूप में प्राप्त कर बिजली का अनुभव करता है। पुरुरवा सोचता है कि मेरी मृगनयनी प्रिया का कोई राक्षस अपहरण करके ले जा रहा है। मैं उसका पीछा कर रहा । पर मुझे प्रिया के स्थान पर विद्युत और राक्षस के स्थान पर कृष्णमेघ ही प्राप्त होते हैं । कवि ने यहाँ नायक की भ्रान्तिमान मनस्थिति का बड़ा ही हृदयग्राही चित्रण किया है। कवि कहता है: Jain Education International म जाणिअं मिअलोअणी जिसअरु कोइ हरेइ । जाव णु णवतलि सामल धाराहरु वरिसेइ ॥ वही० ४८ बरसते हुए बादलों को देखकर पुरुरवा की वेदना अधिक बढ़ जाती है और वह उन पर अपनी भावनाओं का आरोपण करता है । वह अनुभव करता है कि मेघ क्रोधित होकर ही जल की वर्षा कर रहे हैं । अतः वह उनसे शान्त रहने की दृष्टि से प्रार्थना करता है । और कहता है कि हे मेघ, थोड़े समय तक आप लोग रुक जाइये । जब मैं अपनी प्रिया को प्राप्त कर लूँ तब तुम अपनी मूसलाधार वर्षा करना प्रिया के साथ तो मैं सभी कष्टों को सहन कर सकता हूँ, पर एकाकी इस वर्जन- सर्जन को सहन FR 375174 ril T68 SHON&#82 9 था आनन्द For Private & Personal Use Only 10. फ्र फार www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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