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________________ अभिनंदन ८८ प्राकृत भाषा और साहित्य राजस्थानी की मारवाड़ी बोली में कर्ता एक वचन में प्रतिपादिक ही पद के रूप में प्रयुक्त होता है तथा बहुवचनसूचक रूपिम ( Magphemes ) जोड़ा जाता है । कर्ता की कोई विशेष विभक्ति नहीं होती । मारवाड़ी के उदाहरण दृष्टव्य हैं आआनंद कोष आमदन आआआ आनन्द NANOON (i) छोरो रोटी खा य है । (ii) छोरा रोटी खा या है । इन वाक्यों में 'छोरो' एक वचन में है, उसकी (कर्ता) कोई विभक्ति नहीं है । इसी प्रकार 'छोरा' में 'आ' बहुवचन सूचक है, किन्तु कर्ता में कोई विभक्ति नहीं है । इस प्रकार अन्य विभक्तियों के उदाहरण मी राजस्थानी में खोजे जा सकते हैं, जिनका प्रयोग नहीं होता । विभक्ति की अदर्शन प्रवृत्ति से प्रभावित होकर प्राकृत अपभ्रंश में निपात एवं परसर्गों का प्रयोग होने लगा था । प्राकृत वैयाकरण पुरुषोत्तम ने डा (१८) और डु ( २० ) प्रत्ययों का प्रयोग बहुवचन में बतलाया है। हेमचन्द्र ने भी अ, डड, डुल्ल इन प्रत्ययों का प्रयोग संज्ञा शब्दों के साथ बतलाया है । १४ उदाहरण दिया है— 'म कन्तहो वे दोसडा' (मेरे कन्त के दो दोष हैं) राजस्थानी में दोसडा, दिवहडा, रुक्खडा, सन्देसडा आदि प्रयोग आज भी होते हैं । स्त्रीलिंग में राजस्थानी में यह प्रत्यय डी हो जाता है । लोकगीतों में 'गोरडी' रूप बहु प्रयुक्त है । सर्वनाम प्राकृत के सर्वनामों की संख्या अपभ्रंश में न केवल कम हुई है, अपितु उनमें सरलीकरण भी हुआ है। राजस्थानी में अपभ्रंश के बहुत से सर्वनाम यथावत् आ गये हैं अथवा उनमें बहुत कम परिवर्तन हुआ है । कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं 'हउं मन्द बुद्धि णिग्गुणु णिरत्थु ।' (भविसयत्त कहा १ / २ ) 'हउं पुणु जाणमि' (दोहाकोस, १४४ ) यहाँ मैं के लिए हउं शब्द प्रयुक्त हुआ है । गुजराती में हुं के अनेक प्रयोग मिलते हैं। राजस्थानी में साहित्य एवं बोलचाल दोनों में इसका प्रयोग होता है । यथा Jain Education International 'हउं ऊजालिसि आयणा' (अचलदास खीची-री वचनिका १४ - ५ ) 'हउं कोसीसा कंत' (१४-६) 'हूं पापी हेक्ली, सुजस नह जाणां सांमी ।' 'हूं वेदां वाहरु किसन' (पीरदान ग्रन्थावली, पृ० ५१-५३) 'हूं पाठवी तीणइ तूं अ पासि' (सदयवत्स वीरप्रबन्ध, ४८६ ) इसी प्रकार अन्य सर्वनामों में भी साम्य दृष्टिगोचर होता है। हेमचन्द्र ने 'किम: काईकवणौ वा' ।। ३६७ ।। सूत्र द्वारा कहा है कि अपभ्रंश में किम् शब्द के स्थान पर 'काई' और 'कवण' विकल्प से आदेश होते हैं । यथा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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