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________________ د. ععععه و مر مر یف فلیمی عرعر عرعر عزه جمعي في وعده جنه ا ء دلع ید ع مرعي تيايه GE ല आचार्यप्रवास आचार्यप्रभि श्रीआनन्दग्रन्थ श्रीआनन्दा अन्ध५2 ८६ प्राकृत भाषा और साहित्य राजस्थानी भाषा के अन्तर्गत कई बोलियाँ हैं, जिनका विभाजन विद्वानों ने कई दृष्टियों से किया है। डा०ग्रियर्सन का विभाजन अधिक उपयुक्त है। पूर्वी राजस्थानी-दृढाड़ी एवं हाड़ोती, दक्षिणी राजस्थानी-मालवी निमाड़ी, उत्तरी राजस्थानी-मेवाती तथा पश्चिमी राजस्थानी-मारवाड़ी एवं मेवाड़ी। इन सब में मारवाड़ी साहित्यिक दृष्टि से अधिक समृद्ध है। राजस्थानी भाषा की इन सभी बोलियों पर प्राकृत-अपभ्रंश का प्रभाव पड़ा है । इनके कई प्रयोग आज भी राजस्थानी में देखे जा सकते हैं। प्राकृत एवं अपभ्रंश के जो तत्व राजस्थानी भाषा में उपलब्ध हैं, वे दो प्रकार के हैं-(i) राजस्थानी का जो प्राचीन साहित्य है उसके ग्रन्थों की भाषा पर तथा (ii) वर्तमान की बोल-चाल एवं साहित्यिक राजस्थानी पर। किसी भी भाषा पर अन्य भाषा का प्रभाव दो प्रकार से पड़ता है-ध्वनि-परिवर्तन द्वारा एवं व्याकरण के आधार पर। राजस्थानी में प्राकृत एवं अपभ्रंश के ये दोनों प्रकार के तत्व उपलब्ध हैं। ध्वनि-तत्व राजस्थानी में भाषा-विज्ञान की दृष्टि से अनेक ध्वनि-परिवर्तन हुए हैं। किन्तु राजस्थानी के परिवर्तित रूपों का मूल अपभ्रंश या प्राकृत-रूप क्या था, कह पाना कठिन है। इन भाषाओं के साहित्य में प्रयुक्त कुछ शब्दों के आधार पर राजस्थानी भाषा के ध्वनि-परिवर्तनों को देखा जा सकता है। स्वर आचार्य हेमचन्द्र ने अपभ्रंश का नियोजन करते हुए एक सूत्र दिया है स्यादौ दीर्घ स्वौ ॥ ३३० ।-अर्थात सि-सु आदि विभक्तियाँ परे रहें तो संज्ञा शब्दों के अन्त्यस्वर का प्राय: दीर्घ या ह्रस्व हो जाता है। यही प्रवृत्ति राजस्थानी में उपलब्ध है । यथा (i) दीर्घ का ह्रस्व होना-धण<धन्या, रेह< रेखा, बहरबध आदि । (ii) ह्रस्व का दीर्घ होना-ढोल्ला<ढोल, सामला<श्यामल, संगाइ<संगति, हीय< हिय <हृत आदि। (iii) ऋ का परिवर्तन-प्राकृत एवं अपभ्रंश में ऋकार का अनेक स्वरों में परिवर्तन होता है। राजस्थानी में यह प्रवृत्ति सुरक्षित है यथा रिसी<ऋषि, नाच<नच्च<नृत्य, तिन <तृण, बड्ढो<वृद्ध आदि । व्यंजन प्राकृत के व्यंजन-परिवर्तनों की सामान्य प्रवृत्ति को अपभ्रंश ने बनाये रखा। राजस्थानी में यद्यपि इसके प्रयोग कम हो गये हैं, फिर भी कुछ तत्व उपलब्ध हैं, यथा नेर <नयर<नगर, सायर<सागर, सहि<सखि, कोइल <कोकिल, जुज्झ<युद्ध, डोला<दोला, डाह <दाह, भणइ<पढइ< पठति आदि । दा क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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