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________________ अक्षरविज्ञान : एक अनुशीलन ७१ द्रव्यश्रुत; अक्षर रूप ज्ञान को द्रव्यश्रुत कहते हैं । उन अक्षर रूप ६४ अनादि मूलवर्णों को लेकर समस्त श्रुतज्ञान के अक्षरों का प्रमाण निम्न प्रकार निकाला जा सकता है । गाथासूत्र निम्न प्रकार है— चउसट्ठियं विरलिय दुगं दाऊण सगुणं किच्चा सऊणं च कए पुण सुदणाणस्सक्खरा होंति ॥ अर्थ – चौसठ अक्षरों का विरलन करके प्रत्येक के ऊपर दो का अंक देकर परस्पर सम्पूर्ण दो के अंकों का गुणा करने से लब्ध राशि में एक घटा देने से जो प्रमाण रहता है, उतने ही श्रुतज्ञान के अक्षर होते हैं । इन अक्षरों का प्रमाण गाथा में निम्न प्रकार कहा गया है छस्सत्तयं च च य सुण्णसत्ततिय सत्ता । एकट्ठे च चय सुणं णव पण पंच य एक्कं छक्केक्कगो य पणयं च ॥ अर्थ – एक, आठ, चार, चार, छह, सात, चार-चार शून्य, सात, तीन, सात, शून्य, नव, पंच, पंच, एक, छह, एक, पाँच इतने श्रुतज्ञान के अक्षर हैं । मातृका ध्वनियाँ :- एक दिग्दर्शन - ज्ञान की अमित शक्ति वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर में छिनी हुई है । वर्णमाला में स्वर संख्या १६ तथा व्यंजन संख्या ३५ है । सभी अक्षरों की मातृका ध्वनियाँ हैं । जयसेन प्रतिष्ठापाठ में बतलाया गया है अकारादि क्षकारान्ताः, वर्णा प्रोक्तास्तु मातृकाः । सृष्टिन्यासः स्थितिन्यासः, संहृति न्यासतस्त्रिधा ॥ ३७६ ॥ अर्थ—अकार से लेकर क्षकार ( क् + ष् + अ ) पर्यंन्त मातृका वर्ण कहलाते हैं । इनका तीन प्रकार का क्रम है - सृष्टिक्रम, स्थितिक्रम और संहारक्रम । इन तीनों क्रमों में आत्मानुभूति की स्थिति के साथ लौकिक अभ्युदय का निर्माण तथा असत् का संहार जुड़ा हुआ रहता है । वर्णमाला का प्रत्येक अक्षर बीजसंज्ञक । बीजाक्षरों की निष्पत्ति के सम्बन्ध में बताया गया है – “हलो बीजानि चोक्तानि, स्वराः शक्तय इता:" अर्थात् ककार से हकार पर्यन्त व्यंजन बीजसंज्ञक हैं और अकारादि स्वर शक्ति रूप हैं । मन्त्र बीजों की निष्पत्ति बीज और शक्ति के संयोग से होती है । सारस्वतबीज, मायाबीज, भुवनेश्वरीबीज, पृथ्वीबीज, अग्निबीज, प्रणवबीज, मारुतबीज, जलबीज, आकाशबीज आदि की उत्पत्ति उपरोक्त हल् और अचों के संयोग से होती है। बीजों का सविस्तार वर्णन बीजकोश में वर्णित है, परन्तु यहाँ पर सामान्य जानकारी के लिए ध्वनियों की शक्तियों का दिग्दर्शन कराया जाता है । Jain Education International अ-अव्यय, व्यापक, आत्मा के एकत्व का सूचक, शुद्ध-बुद्ध ज्ञानरूप, शक्ति द्योतक, प्रणयबीज का जनक | आ - अव्यय, शक्ति और बुद्धि का परिचायक, सारस्वतवीज का जनक, मायाबीज के साथ कीर्ति, धन और आशा का पूरक । इ - गत्यर्थक, लक्ष्मी प्राप्ति का साधक, कोमल कार्य साधक, कठोर कर्मों का बाधक, बहिनबीज का जनक 1 आचार्य प्र आचार्य प्रव आमदन आ For Private & Personal Use Only फ्रा www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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