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________________ श्री आनन्दत्र ग्रन्थ 32 फ्र आचार्य प्रव ६२ प्राकृत भाषा और साहित्य (८) पार्श्वनाथ स्तोत्र (संस्कृत प्राकृत भाषामय) - श्री समय सुन्दर (e) तीर्थङ्कर - चतुर्विंशति- गुरुनामगर्भ-पार्श्वस्तवन, (१०) ईर्यापथिकी - विधिगमित पार्श्वनाथस्तवन, (११) संस्कृत प्राकृतमय पार्श्वनाथस्तवन, (१२) अल्पत्वबहुत्व विचारगर्भित प्राकृत स्तोत्र, (१३) यमकबद्ध प्राकृत स्तोत्र, (१४) संस्कृत भाषाभिन्न पूर्वार्धोत्तरार्ध श्री जिनस्तवन - धर्मघोषसूरि, (१५) ओहाणबन्ध (आभाणकबन्ध ) जिनस्तोत्र, (१६) संस्कृत - प्राकृतमय श्रीवीरस्तवन, धनपाल ( १७ ) संस्कृत प्राकृतमय आदिदेवस्तवन, रामचन्द्रसूरि, (१८) महामन्त्रगर्भित अजितशान्तिस्तव, धर्मघोष, (१९) नवग्रहश्लेषरूप पार्श्वनाथ लबुस्तव, जिनप्रभसूरि, (२०) मन्त्र - भेषजादि गर्भित युगादिदेवस्तव, शुभसुन्दरगणि, (२१) पंचकल्याणक कलितक विंशतिस्थानगर्भित - श्रीमल्लिजिनस्तवन, (२२) भोज्यादिनामगर्भ जिनस्तवन तथा ( २३ ) रसवतीचित्रगर्भ वर्धमानस्तव । उपसंहार Jain Education International अभिनंदन प्राकृत भाषा की शब्दगुम्फना में अनुरणन की जो मसृणता सहज उपलब्ध हो जाती है तथा पदों की मृदुलता और मांसलता से जो आन्दोलन-माधुरी निखर आती है, वह सचमुच ही सहृदय - हृदयै कगम्य है । यही कारण है कि नाटकों में इस भाषा को सर्वतोभावेन प्रश्रय मिला। कुछ पात्रों के लिए यह भाषा सर्वथा आवश्यक मानी गई। एक काल वह भी आया कि लोकरंजन की भूमिका का निर्वाह करने के लिये संस्कृत भाषा को छोड़ शुद्ध प्राकृत में ही गहन साहित्य की रचना की जाने लगी। जैन-सम्प्रदाय और उनके आचार्यों ने अपनी साहित्य-साधना का माध्यम प्राकृत भाषा को ही स्वीकार किया । आगमादि समस्त धार्मिक वाङ् मय इसी भाषा में आकलित है तथा उन्हीं ग्रन्थों के महान् दायित्व को चिर-स्थिर रखने के आज भी प्रयास हो रहे हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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