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________________ एक पुण्य स्मृति मेरे गुरुदेव .-आचार्यप्रवर आनन्द ऋषि - सम्यक् दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र प्राप्ति में सहायक, मुक्तिमार्गदर्शक पूज्य गुरुदेव श्री रत्नऋषि जी म० के चरणारविन्दों में शत-शत वंदन हैं अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नमः ॥ आपश्री के अनन्त उपकार ही मेरे जीवन के पाथेय हैं। आप ही मेरी ज्ञान-ध्यान, जप-तप साधना आदि के आधारभूत हैं। अतएव मैं सर्वात्मना आपके गुणगान करते हुये भी उऋण नहीं हूँ। आपश्री की गुणावलियों के लिये-- सब धरती कागद करू लेखनि सब वनराय। सात समुद्र की मसि करू (तो भी) गुरु गुन लिखा न जाय ॥ आपश्री इन्द्रियजयी, ब्रह्मचर्य के आराधक, कषायविजेता, पंच महाव्रतों के धारक, अष्ट प्रवचनमाताओं (पाँच समति, तीन गुप्ति) से संयुक्त थे और इन्हीं के संस्कारों को सिंचित कर मेरे जीवन में नित नूतन ओज-तेज का अंकुरारोपण किया है, सन्मार्ग में स्थापित किया है। आपश्री द्वारा प्रदत्त संस्कार हैं सत्यं वद । धर्म चर । स्वाध्याय-प्रवचनाभ्याम् न प्रमदितव्यम् । सत्य बोलो। धर्म का पालन करो। स्वाध्याय-प्रवचन में प्रमाद न करना । आपश्री विरागी थे, अकिंचन थे लेकिन आपको प्राप्त संपदायें अनुपमेय थीं । बड़े-बड़े इन्द्र, नागेन्द्र एवं नरेन्द्र भी उनको प्राप्त करने के लिये लालायित रहते हैं । आपकी सम्पत्तियाँ भोग की नहीं, वरन् योग की साधक हैं और वे हैंआचार, श्रुत, शरीर, वचन, वाचना, यति, प्रयोग और संग्रहपरिज्ञा । मेरे जीवन को संवारने में उक्त अष्ट सम्पदाओं का उपयोग कर मुझे भी आध्यात्मिक वैभव से सम्पन्न बनाया। ____ अपने जीवन निर्माता गुरुदेव के गुणानुवाद के लिये स्वानुभवों की अंजलि के कतिपय संस्मरण प्रस्तुत करता है। जो मेरे लिये मार्गदर्शक होने के साथसाथ संयम साधकों के लिये भी अवलंबनभूत हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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