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________________ आपायप्रवास अभिनंदन आआनन्द סים 雨 १८ अन्य आचार्य प्रवर अभिनंदन प्राकृत भाषा और साहित्य पिबेः पिज्ज - डल्ल - पट्ट-घोट्टाः ॥ ४ । १० पिबतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति । पिब को ( विकल्प से ) पिज्ज, डल्ल, पट्ट तथा घोट्ट ये चार आदेश होते हैं; जैसे -- पिबति — पिज्जइ, डल्ल, पट्टई, घोट्टई । निद्रातेरोहीरोङ्गौ ॥ ४ । १२ निपूर्वस्य द्राते: ओहीर उङ्घ इत्यादेशो वा भवतः । नि पूर्वक द्राति को ( विकल्प से) ओहीर और उङ्घ आदेश होते हैं; जैसे निद्राति - ओहीरइ, उङ्घइ । वैयाकरणों ने आदेशों द्वारा देशी शब्दों और क्रियाओं को संस्कृत के साँचे में ढालने का जो प्रयत्न किया, वह वस्तुतः कष्टकल्पना थी, जिसे समीचीन नहीं कहा जा सकता । Jain Education International आचार्य हेमचन्द्र के जो सूत्र ऊपर सोदाहरण उद्धृत किये गये हैं, उन से दो तथ्य प्रकाश में आते हैं। एक यह है कि अन्य प्राकृत वैयाकरणों की तरह हेमचन्द्र भी आदेशों के रूप में उसी प्रकार की कष्टकल्पना के प्रवाह में बह गये। दूसरा यह है कि हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के प्रणयन उद्देश्य, कथन, प्रकार आदि पर पिछले पृष्ठों में जो चर्चा की गई है, उसी सन्दर्भ को यहाँ जोड़ा जा सकता है अर्थात् हेमचन्द्र संस्कृत के पुल से प्राकृत के तट पर पहुँचाना चाहते थे, इसलिए देशी शब्दों के आधार, व्युत्पत्ति, स्रोत आदि कुछ भी न प्राप्त होने पर भी उन्हें व्याकरण को परिपूर्णता देने की दृष्टि से आवश्यक लगा है। कि देशी शब्दों और धातुओं को भी क्यों छोड़ा जाए। उनके लिए कुछ जोड़-तोड़ की जा सकती है । सम्भवत: इसी का परिणाम हेमचन्द्र द्वारा निरूपित आदेश हैं । हेमचन्द्र अपने व्याकरण के चतुर्थ पाद के दूसरे सूत्र में कथ् धातु के स्थान पर होने वाले आदेशों का उल्लेख कर एक और बात सूचित करते हैं कि यद्यपि दूसरे ( सम्भवतः दूसरे उनसे पूर्ववर्ती) वैयाकरणों ने इनको देशी (रूपों) में गिना है पर वे (हेमचन्द्र ) धात्वादेशपूर्वक इन्हें विविध प्रत्ययों में प्रतिष्ठित करने की व्यवस्था कर रहे हैं । हेमचन्द्र के इस कथन से यह स्पष्ट है कि पूर्ववर्ती वैयाकरण अनेक देशी शब्दों और धातुओं को देशी (रूपों) में पढ़ देते थे । वे सभी देशी रूपों को सिद्ध करने का प्रयास नहीं करते थे । हेमचन्द्र ने तो कथ् धातु के अर्थ में प्रयुक्त होने वाली दश देशी क्रियारूपों को उपस्थित कर दिग्दर्शन मात्र कराया है, और भी ऐसे अनेक देशी रूप रहे होंगे, जिन्हें पूर्ववर्ती वैयाकरण देशी में गिनाते रहे हों । यह वस्तुस्थितिपरक बात थी । संस्कृत के ढाँचे में प्राकृत को सम्पूर्णतः ढालने के अभिप्राय से चला यह आदेश - मूलक क्रम भाषा विज्ञान की दृष्टि से समुचित नहीं था । बलात् व्याकरण के साँचे में उतारने से भाषा के वास्तविक स्वरूप को समझने में भ्रान्ति उत्पन्न हो जाती है । पर क्या किया जाता, युग का मोड़ ही सम्भवतः वैसा था । संस्कृत-नाटकों पर दृष्टिपात करने से इस तथ्य पर और प्रकाश पड़ता है । जैसा कि प्रसंगोपात्ततया चर्चा की गई है । संस्कृत - प्राकृत रचित नाटकों में सम्भ्रान्त या उच्चकुलोत्पन्न पुरुष पात्र संस्कृत में बोलते हैं तथा साधारण पात्र (महिला, बालक, भृत्य आदि) प्राकृत में बोलते हैं । नाटकों की यह भाषा सम्बन्धी परम्परा प्राकृत की जनभाषात्मकता की द्योतक है । यहाँ कहने की बात यह है कि इन ( उत्तरवर्ती काल में रचित) नाटकों में प्रयुक्त प्राकृतों का सूक्ष्मता से परिशीलन करने पर प्रतीत होता है कि सोवा संस्कृत में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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