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________________ प्राकृत भाषा : उद्गम, विकास और भेद-प्रभंद है । मार्कण्डेय ने प्राकृत-सर्वस्व में प्राकृत का "प्रकृतिः संस्कृतम् तत्र भवं प्राकृतमुच्यते” प्रकृति संस्कृत है, वहाँ होने वाली भाषा अर्थात् उससे निष्पन्न होने वाली भाषा प्राकृत कही जाती है—ऐसा लक्षण किया है । प्राकृत-चन्द्रिका में "प्रकृतिः संस्कृतम् तत्र भवत्वात् प्राकृत स्मृतम्" प्रकृति संस्कृत है, वहाँ होने से या उससे उद्भूत होने से यह भाषा प्राकृत कही गई है-ऐसा उल्लेख किया गया है। नरसिंह ने षड्भाषाचन्द्रिका में "प्राकृते: संस्कृतायास्तु विकृतिः प्राकृती मता" संस्कृत रूप प्रकृति का विकार-विकास माना गया है- ऐसा विवेचन किया गया है। प्राकृत-संजीवनी में कहा गया है कि "प्राकृतस्य सर्वमेव संस्कृतं योनिः" अर्थात प्राकृत का मूल स्रोत सर्वथा संस्कृत ही है। नाट्यशास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान् धनिक ने दशरूपक में "प्राकृते: आगतं प्राकृतम् प्रकृति: संस्कृतम्" । जो प्रकृति से आगत है वह प्राकृत है और प्रकृति संस्कृत है-ऐसा विश्लेषण किया है। सिंहदेवगणी ने वाग्भटालङ्कार की टीका में "प्रकृते: संस्कृतात् आगतं प्राकृतम्” संस्कृत रूप प्रकृति से जो भाषा आई, उद्भूत हुई, वह प्राकृत है-ऐसी व्याख्या की है। काव्यादर्श के टीकाकार प्रेमचन्द तर्कवागीश ने लिखा है--"संस्कृतरूपाया प्राकृतेः उत्पन्नत्वात प्राकृतम्" संस्कृत रूप प्रकृति से उत्पन्नता के कारण यह भाषा प्राकृत नाम से अभिहित हुई है। नारायण ने रसिकसर्वस्व में प्राकृत और अपभ्रंश के उद्भव की चर्चा करते हुए कहा है--"संस्कृतात् प्राकृतमिष्टम् ततोऽपभ्रंशभाषणम्" संस्कृत से प्राकृत और उससे अपभ्रंश अस्तित्व में आई। प्राकृत के वैयाकरणों तथा काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों के कतिपय टीकाकारों के उपर्युक्त विचारों से सामान्यत: यह प्रकट होता है कि उन सबकी प्रायः एक ही धारणा थी कि संस्कृत से प्राकृत उत्पन्न यहाँ सबसे पहले सोचने की बात है कि संस्कृत का अर्थ ही संस्कार, परिमार्जन या संशोधन की हुई भाषा है, तब उससे प्राकृत जैसी किसी दुसरी भाषा का उद्भूत होना कैसे संभव हो सकता है। या तो प्राकृत के उपर्युक्त वैयाकरणों ने और काव्यशास्त्रीय विद्वानों ने भाषा-तत्त्व या भाषा-विज्ञान की दृष्टि से सोचा नहीं था या उनके कहने का आशय कुछ और था। प्रकृति शब्द का मुख्य अर्थ जन-साधारण या स्वभाव होता है। जन-साधारण की भाषा या स्वाभाविक भाषा--वस्तुत: प्राकृत का ऐसा ही अर्थ होना चाहिए। आगे हम कुछ विद्वानों के मतों की चर्चा करेंगे, जिससे यह संगत प्रतीत होगा। उपर्युक्त विद्वानों ने यदि वस्तुतः संस्कृत को प्राकृत का मूल स्रोत स्वीकार किया हो, इसी अर्थ में संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति कहा हो तो यह विचारणीय है। जैसा कि सिद्ध है, संस्कृत व्याकरण से सर्वथा नियमित एवं प्रतिबद्ध हो चुकी थी। ऐसा होने के बाद भाषा का अपना स्वरूप तो यथावत् बना रहता है पर उसका विकास रुक जाता है। उससे किसी नई भाषा का प्रसूत होना सम्भव नहीं होता। क्योंकि वह स्वयं किसी बोलचाल की भाषा (जन-भाषा) के आधार पर संस्कार-युक्त रूप धारण करती है। आचार्य हेमचन्द्र जैसा विद्वान् जिसकी धार्मिक परम्परा में प्राकृत को जगत् की आदिभाषा तक कहा गया है, इसे संस्कृत से निःसृत माने, यह कैसे सम्भव हो सकता है। हेमचन्द्र आदि वैयाकरणों ने संस्कृत को PAINMainaraninabranAmarwAAJ- ANAMALA . आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवभि श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्दा अन्य meromainnromeryonextar v.' Arvie Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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