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________________ काया जैन आचारसंहिता ४२१ चाहिए। यदि संयम लेना शक्य न हो तो दर्शन, व्रत, सामायिक आदि ग्यारह पडिमाओं का पालन करना चाहिए। पडिमाओं का पालन करते-करते और रोग या वृद्धावस्था आदि कारणों से जब मृत्यु निकट प्रतीत होने लगे तो संथारा, संलेखना करके समाधिमरण करने का प्रयत्न करना चाहिए। संलेखना (मृत्युकला) मृत्यु की कल्पना संसार में सबसे भयावह मानी जाती है। लेकिन हमें समझना चाहिए कि मृत्यु भी जीवन का ही दूसरा पहलू है या अनिवार्य परिणाम है । अतः मृत्यु से डरने की जरूरत नहीं है, किन्तु उसको भी इस रूप में ग्रहण करना चाहिए कि वह शोक की जगह उत्सव का रूप बन जाए। मृत्यु को भी कला का रूप देते हुए भगवान महावीर ने जो निर्देश किया है, वैसा अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है। उन्होंने कहा कि मृत्यु से भयभीत होना अज्ञान का फल है । मृत्यु तो मनुष्य की मित्र है और जीवन भर की साधना को सफलता की ओर ले जाती है। यदि मृत्यु सहायक न बने तो धर्मानुष्ठान कर पारलौकिक फल स्वर्ग-मोक्ष कैसे प्राप्त हो सकेगा। इसीलिए मृत्युकला का विशद विवेचन करते हुए उन्होंने मृत्यु के १७ प्रकार बतलाये हैं। उन सबको वाल (मुर्ख जीवों का) मरण और पंडित मरण इन दो भेदों में गभित किया जा सकता है। बाल मरण से वे जीव शरीर त्यागते हैं जो इस संसार की मोहमाया में लिप्त हैं। लेकिन पंडित मरण ज्ञानियों का होता है, जिन्होंने संसार के स्वरूप को समझ लिया है, हर्ष, विषाद, जीवन, मरण में माध्यस्थभाव से रमण करते हुए आत्म-विकास के लिए तत्पर हैं। मरण को कला बनाने के लिए जैनधर्म में जीवन के प्रारम्भ से ही अभ्यास करने का संकेत किया है कि मृत्यु कभी भी आ सकती है, दिन में भी और रात में सोते समय भी। अत: कम से कम व्यक्ति को रात में सोते समय समस्त संकल्प-विकल्पों को तजकर सागारी त्याग-प्रत्याख्यान पूर्वक सोना चाहिये । प्रतिरात्रि इस प्रकार का संथारा करने से समाधिमरण की कला का ज्ञान हो जाता है और अकस्मात सोते समय मरण हो जाने पर भी जगत की मोहमाया से अलिप्त रहकर परभव में एक नए उज्ज्वल जीवन का प्रारम्भ करता है और कभी ऐसा भी अवसर आ जाता है जब कि जीवन और मरण के चक्र को सदैव के लिए निर्मल कर मोक्ष प्राप्त हो सकता है। समाधिमरण का साधक सब प्रकार से मोह-ममता का त्याग करके आत्मध्यान में समय व्यतीत करता है । फिर भी उसे निम्नलिखित पांच दोषों से बचने के लिए सतर्क किया गया है १. इहलोकाशंसा, २. परलोकाशंसा, ३. जीविताशंसा, ४. मरणाशंसा, ५. कामभोगाशंसा। आशंसा का अर्थ है इच्छा, आकांक्षा, शंका रखना । मृत्युकला का यह संक्षिप्त दिग्दर्शन है। इस कला की उपासना श्रमण और श्रावक दोनों को करना चाहिए। जैन आचार-संहिता का यहाँ संक्षेप में विवेचन किया गया है। यथाशक्ति जो भी व्यक्ति अपनी पात्रता के अनुसार आचरण करेगा वह इस जन्म में सुखी बनेगा और परजन्म में अपने सुकृत का उपभोग करते हुए स्वरमणता रूप स्थिति को प्राप्त करेगा। म AvinayaN Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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