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________________ जैन आचारसंहिता ४१६ % AKA EPTE (५) उपभोगपरिभोगातिरिक्ता--उपभोग-परिभोग के लिए जिन वस्तुओं की मर्यादा की गयी है उनमें अत्यधिक आसक्त रहना । विशेष आनन्द लेने के लिए उनका बार-बार उपभोग करना। गुणवत के भेदों का कथन करके अब शिक्षाव्रत के ४ भेदों के स्वरूप को बतलाते हैं। उनके नाम और लक्षण क्रमशः इस प्रकार हैं है. सामायिक मन की राग-द्वेषमयी परिणति विषमभाव है और वस्तुओं पर रागद्वेष न करके मध्यस्थ भाव रखना सम कहलाता है । इस सम-भाव से साधक को जो आय-लाभ होता है, उसे सामायिक कहते हैं । अतएव समभाव को प्राप्त करने, विकसित करने और स्थायी बनाने के लिए जिस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है उसे भी सामायिक कहते हैं। ग्रहस्थ के लिए इस व्रत की आराधना का काल ४८ मिनट निर्दिष्ट किया गया है। इस समय में श्रावक को समस्त पापमय व्यापारों का त्याग करके आत्मचिन्तन करना चाहिए और उस समय में प्राप्त समभाव की प्रेरणा को जीवनव्यापी बनाने का यत्न करना चाहिए। सामायिक व्रत में निम्नलिखित पाँच दोषों का बचाव रखना चाहिए(१) मनोदुष्प्रणिधान-मन से सावद्य-पाप युक्त विचार करना । (२) वचनदुष्प्रणिधान-सावद्य वचन बोलना । (३) कायदुष्प्रणिधान---शरीर की सावध प्रवृत्ति करना । (४) सामायिकस्मृतिअकरणता-मैंने सामायिक की है, इसे भूल जाना अथवा सामायिक करना ही भूल जाना। (५) सामायिक अनवस्तिकरणता-सामायिक से ऊबकर उसके निर्धारित समय से पहले उठा जाना या सामायिक के समय के पूरे होने या न होने के लिए बार-बार घड़ी आदि की ओर ध्यान जाना। १० देशावकाशिकवत दिग्वत में जीवन पर्यंत के लिए गमनागमन के लिए की गई मर्यादा में से एक दिन या न्यूनाधिक समय के लिए कम करना और उस मर्यादा के बाहर के समस्त पापकार्यों का त्याग कर देना देशावकाशिक व्रत है। इस व्रत में भोगोपभोग की वस्तुओं के लिए की गई मर्यादा में भी संकोच किया जाता है। इस व्रत के निम्नलिखित पांच अतिचार हैं(१) आनयनप्रयोग-मर्यादित क्षेत्र से बाहर के क्षेत्र की वस्तु को दूसरों से मंगवाना। (२) प्रेष्यप्रयोग-मर्यादित क्षेत्र से बाहर दूसरों के द्वारा वस्तु को भिजवाना। (३) शब्दानुपात-मर्यादित क्षेत्र से बाहर न जा सकने के कारण छींक, खांसी आदि शब्द प्रयोग के द्वारा दूसरे को बुलाना । (४) रूपानुपात-मर्यादित क्षेत्र से बाहर रहे हए व्यक्ति को अपनी शारीरिक चेष्टाओं द्वारा बुलाना या सूचना आदि देना। (५) बहिःपुद्गलक्षेप-मर्यादित क्षेत्र से बाहर प्रयोजन वश अपना भाव बतलाने के लिए पत्थर, कंकड़ आदि फेंकना । इन अतिचारों से श्रावक को बचना चाहिए। ११. पौषधव्रत जिससे आत्मिक गुणों और धर्मभाव का पोषण होता है, उसे पौषधव्रत कहते हैं । यह व्रत चार प्रकार का है IE waJAANBARA AARAMJJAAJAVAJAVAJANAADARAAJAJaaDHAMAAJhar RAMEANALAine आचार्यप्रवर सजिनापार्यप्रवलि श्राआनन्दग्रन्थश्राआनन्दा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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