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________________ عرعر عرعر تعرج هاجموهرعر عرعر عععععععععععطت عمده به هر ععععععععععععععععععععععععععععععج पार्यप्रवर अभिसापावर भिर श्रीआनन्दकन्थ32श्राआनन्दान्थ2 ViYMayoraamaaraavrriorivarwww ४१६ धर्म और दर्शन AMM/ - कंकर, तिनका आदि उठा लेना या इसी प्रकार की अन्य कोई वस्तु स्वामी की आज्ञा के बिना ले लेना सूक्ष्म चोरी में गमित किया जा सकता है। गृहस्थ के लिए जीवन में पूर्ण रूप से चोरी का त्याग करना कठिन है, इसलिए उसे स्थूल चोरी के त्याग करने का विधान किया गया है। अचौर्याणुव्रती को निम्नलिखित पाँच बातों से बचना चाहिये१. स्तेनाहृत-चोरी (तस्करी) का माल खरीदना ।। २. स्तेनप्रयोग-चोर को चोरी करने की प्रेरणा एवं सहायता देना। ३. विरुद्ध राज्यातिक्रम-राष्ट्र के विरुद्ध कार्य करना, जैसे उचित कर न देना। राजा की आज्ञा के विरुद्ध विदेशों को माल भेजना और मंगवाना। ४. कूटतुला-मान-न्यूनाधिक तोलना, मापना । ५. प्रतिरूपक व्यवहार—बहुमूल्य वस्तु में अल्प मूल्य की वस्तु की मिलावट । सेंध लगाना, जेब काटना, सूद के बहाने किसी को लूट लेना आदि भी स्थूल चोरी के अन्तर्गत हैं । अतः इन कार्यों को किसी भी स्थिति में नहीं करना चाहिए। ४. ब्रह्मचर्याणुव्रत इसको स्वदारसंतोषव्रत भी कहते है। काम-भोग एक प्रकार का मानसिक रोग है, जिसका प्रतिकार भोग से नहीं हो सकता है। अतः मानसिक बल, शारीरिक स्वास्थ्य और आत्मविकास के लिए कामेच्छा से बचना पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत है। लेकिन जो ब्रह्मचर्यव्रत का पूर्णरूप से पालन नहीं कर सकते उन्हें परस्त्रीगमन का तो सर्वथा त्याग कर देना चाहिए और स्वस्त्री के साथ भी ब्रह्मचर्य की मर्यादा करना ब्रह्मचर्याणुव्रत है। ब्रह्मचर्याणुव्रती कामवासना पर विजय प्राप्ति के लिए सदा सचेष्ट रहता है। निम्न पांच दोषों से ब्रह्मचर्याणुव्रती सदैव बचता रहे (१) इत्वरिका परिगृहीतागमन-रखैल आदि के साथ सम्बन्ध रखना। (२) अपरिगृहीतागमन-कुमारी या वेश्या आदि से सम्बन्ध रखना। (३) अनंगक्रीड़ा--काम सेवन के प्राकृतिक अंगों के अतिरिक्त अन्य अंगों से कामक्रीड़ा करना अथवा अप्राकृतिक मैथून सेवन करना। (४) परविवाहकरण-अपने या परिवार के सिवाय दूसरों के विवाह करवाना, उनके विवाहसम्बन्ध (सगाई आदि) स्थापित कराने में अधिक रुचि लेना। (५) कामभोग-तीन अभिलाषा-कामभोगों की तीव्र अभिलाषा रखना, शब्द, रूप आदि इन्द्रिय विषयों में विशेष आसक्त होना । ५. परिग्रहपरिमाणवत पर पदार्थों में मूर्छा-ममत्व व आसक्ति का नाम परिग्रह है। परिग्रह को संसार का सबसे बड़ा पाप कह सकते हैं। परिग्रह-संग्रहवृत्ति के कारण संसार में युद्ध, वर्गसंघर्ष आदि की ज्वाला सुलग रही है । जबतक मनुष्य में लोभ, लालच, गृद्धि भावना विद्यमान है, तब तक शांति नहीं मिल सकती । गृहस्थ सम्पूर्ण रूप से परिग्रह का त्याग नहीं कर सकता। अत: उसके लिए परिग्रह का परिमाण (मर्यादा) करने का विधान है। इससे असीम इच्छाएँ सीमित हो जाती हैं। इस कारण इस व्रत को इच्छापरिमाणव्रत भी कहते हैं। यदि विश्व के सभी नागरिक परिग्रह का परिमाण कर लें तो यह भूमण्डल स्वर्गलोक बन सकता है । परिग्रहपरिमाणव्रत का पालन करने के लिए निम्नलिखित दोषों से बचना चाहिए (१) क्षेत्रावस्तु परिमाण-अतिक्रमण-मकान, खेत आदि के क्षेत्र के परिमाण का अतिक्रमण करना। RO ). 4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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