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________________ गार्मप्रवभिआचार्यप्रवभिन श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्दा अन्य ४१० धर्म और दर्शन नहीं करते हैं। पंखा आदि हिलाकर वायु को उद्वेलित नहीं करते हैं । कन्द, मूल, फल आदि किसी भी प्रकार की सचित्त वनस्पति का स्पर्श भी नहीं करते। पृथ्वीकाय के जीवों की रक्षा के लिए जमीन को खोदने आदि की क्रिया नहीं करते हैं। रात्रि में विहार आहार, आदि नहीं करते हैं और ऊँट, घोड़ा, बैल आदि का सवारी के लिए उपयोग नहीं करते हैं। इनका सारांश यह है कि जिन कारणों और क्रियाओं द्वारा जीवहिंसा की सम्भावना हो सकती है, उन सब कार्यों से अहिंसा का पालक विरत रहता है। २. सत्यमहाव्रत सर्वथा मृषावाद का विरमण करना। मन से सत्य विचारना, सत्य वचन को बोलना और काय से सत्य आचरण करना। क्रोध, लोभ, हास्य, भय आदि कारणों के वश होकर सूक्ष्म असत्य का भी कभी प्रयोग न करना । सत्य का साधक मौन रहना प्रियतर मानता है, फिर भी प्रयोजनवश हित, मित और प्रिय निर्दोष भाषा का प्रयोग करता है। वह न तो बिना सोचे-विचारे बोलता है और न हिसा को उत्तेजना देने वाला भी वचन कहता है। ३. अचौर्यमहावत सर्वथा अदत्तादानविरमण । साधु संसार की कोई भी वस्तु चाहे वह सचित्त हो या अचित्त, अल्पमूल्य की हो या बहुमूल्य की, छोटी हो या बड़ी, बिना स्वामी की आज्ञा के ग्रहण नहीं करते हैं । और तो क्या दांत साफ करने के लिए तिनका भी बिना आज्ञा के ग्रहण नहीं करते हैं। ४. ब्रह्मचर्यमहावत सर्वथा मैथुनविरमण । कामराग-जनित चेष्टा का नाम मैथुन है। साधक के लिए कामवृत्ति और वासना का नियमन आवश्यक है। इस व्रत का पालन करना दुद्धर है अतएव इस व्रत का पालन करने के लिए अनेक प्रकार की नियम-मर्यादायें बतलाई हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं १. शुद्ध स्थान सेवन-स्त्री-पशु, नंपुसकों से रहित स्थान में रहना । २. स्त्री का वर्जन-कामराग उत्पन्न करने वाले स्त्री के हाव, भाव, विलास आदि का सम्पर्क व वर्णन न करना । ३. एकासनत्याग-स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठना एवं जहाँ स्त्री बैठी हो, उस स्थान पर अन्तर्महर्त तक न बैठना। ४. दर्शननिषेध-स्त्री के अंगोपांगों को प्रेमभरी या स्थिर दृष्टि से न देखना । ५. श्रवणनिषेध-स्त्री-पुरुषों के विकारोत्पादक कामुकता पूर्ण शब्दों को न सुनना। ६. स्मरणवर्जन-पूर्व कालीन विषय भोगों का स्मरण न करना। ७. सरस आहारत्याग-सरस, पौष्टिक, विकार जनक राजस, तामस आहार का त्याग करना। ८. विभूषात्याग-स्नान, मंजन, विलेपन आदि द्वारा शरीर को विभूषित नहीं करना । ९. शब्दादित्याग-विकारोत्पादक शब्द, रूप आदि इन्द्रिय विषयों में आसक्त न बनना। ये नियम ब्रह्मचर्य की रक्षा करने वाले द्वारपाल के समान हैं। इनका ध्यान रखने से ब्रह्मचर्य को किसी प्रकार का खतरा नहीं है । इनमें से आदि के नौ नियमों को ब्रह्मचर्य की नव गुप्ति (वाड़) और दसवें (ब्रह्मचर्य) को कोट भी माना गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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