SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 481
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ArrAMUNISAMAJOONOMARAANANAADABSAJANARAAAAAALANAJARJAAAAAAAC.. . CMir आपार्यप्रवर आभासाचार्यप्रवर श्रीआनन्दराश श्राआनन्द Veroni ४०६ धर्म और दर्शन परन्तु गीता और जैन परम्परा की मान्यता में एक मौलिक अन्तर है। गीता के अनुसार साधक किसी एक योग की साधना द्वारा साध्य को प्राप्त कर सकता है जबकि जैन परम्परा में भक्ति, ज्ञान और कर्म इन तीनों योगों की समन्वित साधना द्वारा साध्य प्राप्ति मानी गई है। क्योंकि 'स्व' पर विश्वास करना श्रद्धा (दर्शन) है, स्व को जानना ज्ञान है और स्व में स्थिर होना चारित्र है और इन तीनों की एकरूपता मोक्षमार्ग-दुःख मुक्ति का उपाय है। आचार भी दर्शन है आचार सिर्फ क्रिया या प्रवृत्ति ही नहीं, किन्तु एक दर्शन भी है। उसकी तात्विक एवं सैद्धान्तिक दृष्टि है। वही आचार आचरण करने योग्य होता है जो चरम सत्य को केन्द्रबिन्दु मानकर चलता है। जब सत्य की प्राप्ति के लिए प्रवृत्ति की जाती है, तब दर्शन-चिन्तन और आचार एक दूसरे से तन्मय बन जाते हैं कि उनमें भेद नहीं होता है। एक दूसरे दूध और मक्खन के समान एकाकार हो जाते हैं । शाब्दिक भेद से भले ही हम ज्ञान-क्रिया, विचार-आचार आदि पृथक्-पृथक कह सकते हैं लेकिन तिल और तेल की तरह दोनों एक दूसरे पर आधारित हैं। आचारांग सूत्र आचार की व्याख्या करता है और व्याख्या के लिए सर्वप्रथम सूत्र में कहा है कि 'जिसको अपने स्वरूप का, अपने त्रिकालवर्ती अस्तित्व का, संसार में अनन्तकाल से परिभ्रमण के कारण का, पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओं में से किस दिशा से आने और किस दिशा में जाने आदि का ज्ञान हो गया है, वही आत्मवादी है, लोकवादी है, कर्मवादी है और क्रियावादी है। इसका सारांश यह है कि जिस जीव को अपने त्रिकालवर्ती अस्तित्व का बोध नहीं है उसे न तो संसार का ज्ञान होगा और न ही बंध-मोक्ष के कारणों को जान सकेगा। इस स्थिति में वह किसे तो छोड़ेगा और किसे ग्रहण करेगा। वहाँ त्यागने और ग्रहण करने का प्रश्न ही नहीं उठेगा। लेकिन जिसे 'स्व-पर' का ज्ञान है, वह किसी वस्तु को छोड़ता नहीं किन्तु वस्तु स्वयं छूट जाती है। यही आचार का दार्शनिक रूप है। भगवती सूत्र में गौतम गणधर के एक प्रश्न का उल्लेख है कि हिंसा, झूठ, चोरी आदि का त्याग-प्रत्याख्यान करने वाले व्यक्ति का त्याग सुप्रत्याख्यान है या दुष्प्रत्याख्यान है । इसका समाधान करते हुए भगवान महावीर ने फरमाया है कि जिसे अपने स्वरूप का ज्ञान है, जीव क्या है, अजीव आदि का ज्ञान है, उसका त्याग-प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है। इसके सिवाय अन्य सब त्याग-प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है। इस कथन का सारांश यह है कि त्याग-विराग की सम्यक्ता का आधार 'स्व' स्वरूप का बोध है । स्व-स्वरूप के बोध के साथ जो भी स्थूल प्रवृत्ति होगी वह सब स्वरूप बोध का ही एक पहलू है । अतः आचार दर्शन का मूल उद्देश्य है समत्वयोग की साधना-आत्मा का आत्मा में प्रतिष्ठित हो जाना, स्व को इतना व्यापक बना देना कि पर कुछ भी न रह जाये अथवा पर को इतना अस्तित्व हीन कर लिया जाए कि पर का नामावशेष हो जाये । जब यह स्थिति बन जाएगी तब साधक अपने साध्य की सिद्धि कर लेता है। आचार का व्यावहारिक दृष्टिकोण ऊपर आचार की तात्विक भूमिका का संकेत किया गया है। लेकिन जब तक साधक साध्य की सिद्धि नहीं कर लेता है, तब तक लक्ष्य के उच्च होने पर भी, उसे जीवन व्यवहार चलाना ही पड़ता है। केवलज्ञान प्राप्त दशा में भी केवलज्ञानी अपनी शारीरिक प्रवृत्तियों में, व्यावहारिक १. आचारांग १/१/१ २ भगवती सूत्र ७/३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy