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________________ श्री आनन्द अन्थ 32 श्री आनन्द अन्थ मालव केसरी सौभाग्यमल जी महाराज [ प्रसिद्ध वक्ता, स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के वरिष्ठ मुनि ] जैन आचारसंहिता जीवमात्र का एक ही लक्ष्य है दुःख से मुक्त होना, सुख एवं शान्ति को प्राप्त करना । इसीलिए प्रत्येक विचारक, चिन्तक ने जीव और जगत का चिन्तन करते हुए दुःख से निवृत्ति और सुख की प्राप्ति के उपायों पर विचार किया है। यह बात तो सभी विवेकशील व्यक्तियों ने सिद्धान्तः स्वीकार की है कि कर्म से आवद्ध जीव इस जगत में परिभ्रमण करता है और विभिन्न योनियों में अनेक प्रकार के सुख-दुःखों का अनुभव करते हुए भी दुःखों से छुटकारा पाने का सतत प्रयास करता है । दुःखों से छुटकारा यानी कर्मबन्ध से मुक्ति, अनन्त सुख, शाश्वत आनन्द एवं परम शान्ति की प्राप्ति । प्रत्येक दर्शन एवं धर्म के शास्त्रों एवं ग्रन्थों में चिन्तन के आधार पर बन्धन से मुक्त होने का रास्ता बतलाया है। इस कथन का एक ही उद्देश्य रहा है कि व्यक्ति जीवन के स्वरूप को समझे, बन्ध और मुक्ति के कारणों का परिज्ञान करे और तदनन्तर साधना के द्वारा अपने साध्यलक्ष्य को प्राप्त करे । परन्तु विचारकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से साधना का मार्ग बतलाया है । इसीलिए साधना पद्धतियों में विभिन्नता परिलक्षित होती है और यह स्वाभाविक भी है । - भारतीय चिन्तन अध्यात्मपरक है । उसमें प्रत्येक प्रवृत्ति को आध्यात्मिक विकास के साथ सम्बद्ध किया गया है कि आत्मा को इससे क्या हानि-लाभ होगा । इसीलिए भारतीय चिन्तन में मुक्ति के दो मार्ग बतलाये गये हैं-ज्ञान और क्रिया अथवा विचार और आचार । कुछ विचारकों ने ज्ञान को प्रमुखता दी और कुछ ने क्रिया को, आचार को ही सब कुछ स्वीकार किया । अद्वैतवादी शंकराचार्य की मान्यता है कि ब्रह्म के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान कर लेना ही मुक्ति का मार्ग है । जब तक व्यक्ति अविद्या - अज्ञान के बन्धन में जकड़ा रहेगा, तब तक मुक्त नहीं हो सकेगा । इसके विपरीत मीमांसादर्शन का कथन कि मुक्तिप्राप्ति के लिए सिर्फ ब्रह्म का जानना ही काफी नहीं है किन्तु वेदविदित यज्ञयागादि करना चाहिए। क्योंकि विचारों की काल्पनिक उड़ान से प्राप्ति नहीं होती है, आचार के द्वारा ही लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है । इस प्रकार एक ओर ज्ञान को श्रेष्ठ मानकर आचार की उपेक्षा की गई तो दूसरी ओर क्रियाकाण्ड को प्रमुख मान कर ज्ञान का तिरस्कार किया गया है। दोनों दर्शनों ने इसके लिए अपनी-अपनी युक्तियाँ दी हैं । जैनदर्शन को दृष्टि लेकिन जैनदर्शन में ऐसे दुविधा पूर्ण परस्पर विरोधी दृष्टिकोण को कोई स्थान नहीं दिया है। न तो यह माना है कि ज्ञान ही श्रेष्ठ है और क्रिया अथवा आचार का कोई मूल्य नहीं है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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