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________________ 04aan... NAN.. ... आचार्मप्रवभिनमा आचार्मप्रवभि श्राआनन्दग्रन्थ32श्राआनन्दा ४०२ धर्म और दर्शन begins at home के आधार पर स्वयं वैसा जीवन जीया । परिणाम यह हुआ कि देश में सादा जीवन पद्धति को बल मिला, लोग सामन्ती ढंग के विलासपूर्ण जीवन से घृणा करने लगे तथा यह लहर ठेठ उत्तर से दक्षिण तक फैलाई। भारतीय अपरिग्रह के विचार में मूलतत्त्व स्व-परभेद-विज्ञान का है। तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ तथा अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर ने आत्मा के अतिरिक्त सब कुछ को पर माना, जिसकी चरम निष्पत्ति यह है कि "आत्मा" ने अपने शरीर को भी पर माना । जैसा कि इस देश के निर्गुणी सन्त कबीर ने एक स्थान पर शरीर को पिंजरे की उपमा दी तथा पिंजरे में आत्मा रूपी हंस कैद है । तात्पर्य यह है कि "आत्मा' स्व के अतिरिक्त शरीर तक को "पर" माना । जब यह अनुभव हो कि शरीर जर्जर हो गया है तब उसके प्रति उदासीनता रखकर "संल्लेषणा" व्रत अंगीकार करना चाहिये । पाठक जानते हैं कि जैन आचार पद्धति में संल्लेषणा व्रत द्वारा मनुष्य अपने शरीर का मोह त्माग कर मृत्यु को सखा के रूप में निरपेक्षभाव से वरन करता है। ऐसी स्थिति में भौतिक सम्पदा के संग्रह का विचार नहीं हो सकता। भगवान महावीर ने साधु जीवन में सर्वतः अपरिग्रह तथा गृहस्थ जीवन में अंशतः अपरिग्रह का विधान करके स्वेच्छा का नियंत्रण स्थापित किया। अभी गत चातुर्मास के समय मेरठ में मुनि श्री विद्यानन्दजी के पास कुछ साम्यवादी मित्र आकर “कम्यूनिज्म" के तत्त्व बताने लगे तब उन्होंने उन मित्रों से कहा कि आप किसे कम्यूनिज्म के सिद्धान्त समझाने का प्रयत्न करते हैं जो सर्वथा निर्वसन है। भगवान महावीर ने सम्पदा-संग्रह, आय के स्रोत आदि पर स्वेच्छा पूर्ण नियंत्रण लगाने का सन्देश दिया था। यही नहीं, दैनिक उपयोग में आने वाली तुच्छ वस्तुओं (जैसे दंतोन आदि) की सीमा निर्धारित करने का विधान किया। (देखिये श्रावक के अणुव्रतों में ७ वां अणुव्रत ।) तात्पर्य यह है कि मनुष्य अपनी आवश्यकता से अधिक वस्तु का उपयोग न करे । आज की भोग-प्रधान संस्कृति में जहां मनुष्य संग्रह करता है, आय के साधन विस्तृत करता है वहीं उसके व्यय पर भी वह स्वयं प्रतिबन्ध नहीं लगाता, परिणाम यह होता है कि उपभोग की वस्तु (परिमित मात्रा में उत्पादन होने कि स्थिति में) केवल उसको प्राप्त होती है कि जिसके पास उसको क्रय करने जितना धन हो। यह एक सुनिश्चित सिद्धान्त है कि जब किसी वस्तु का उत्पादन कम हो, बाजार में उसकी खपत अधिक हो तो मूल्य वृद्धि होती है जैसा कि आधुनिक अर्थशास्त्री डिमान्ड एण्ड सप्लाय के सिद्धान्त से प्रमाणित करते हैं। दैनिक उपयोग अथवा अन्य वस्तुओं के उपभोग पर जब हम स्वेच्छा से नियंत्रण लगाते हैं तब हम जहां अपरिग्रही हैं वहीं हम नागरिक धर्म का पालन भी करते हैं। यह शंका से परे तथ्य है कि भगवान महावीर अकिंचन थे । बालक जैसी मासूमियत के साथ निर्विकार भाव से यत्र-तत्र विचरण करते थे। जैन साहित्य के महत्वपूर्ण ग्रन्थ तत्वार्थसूत्र में एक स्थान पर कहा है कि मूपिरिग्रहः तात्पर्य यह है कि मूच्र्छारहित होकर धर्मसाधना के उपकरण साधु रखता है। आधुनिक महापुरुष गांधीजी ने सम्पन्न लोगों के लिये ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया था। उसका तात्पर्य यह था कि जो कुछ संचित है उसे समाज की मालकी मान कर अपने को ट्रस्टी मानें ताकि समाज की आवश्यकता के समय उसका उपयोग किया जा सके। इसमें भी मुरिहित, आसक्तिरहित होने का तत्त्व विद्यमान है। समर्थ रामदास तथा छत्रपति शिवाजी का प्रसंग सर्व विश्रु त है, किन्तु समय परिवर्तन के साथ आज वैचारिक विकृति आ गई है। कई त्यागी होने का दावा करते हुए प्रचुर सामग्री मूर्छारहित या अनासक्त भाव से अपने पास होने का दंभ करते हैं, वास्तविकता यह है कि आज अपनी आवश्यकता से अधिक संग्रह में मूर्छारहित या अनासक्ति के भाव की गुंजाइश नहीं है । इस non attachment की भावना का अधिक विस्तार ने ढोंग पनपा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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