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________________ नयवाद : सिद्धान्त और व्यवहार की तुला पर ३६५ उन्हें व्यवहाराभास कहा गया है। यह व्यवहारनय उपचारबहुल और लौकिक दृष्टि को लेकर चलता है।१२ (४) ऋजुसूत्रनय-वस्तु की अतीत और अनागत पर्यायों को छोड़कर वर्तमान क्षण की पर्यायों को जानना 'ऋजुसूत्र' नय का विषय है। 3 वस्तु की अतीत पर्याय नष्ट हो जाती है और अनागत पर्याय उत्पन्न नहीं होती, इसलिए अतीत और अनागत पर्याय खरविषाण की तरह, संपूर्ण सामान्य से रहित होकर कोई अर्थक्रिया नहीं कर सकती, इसलिए अवस्तु है। क्योंकि अर्थक्रिया करने वाला ही वास्तव में सत् कहा गया है। (यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थ सत्) अपने स्वरूप में स्थित परमाणु ही परस्पर के संयोग से कथंचित् समूहरूप होकर सम्पूर्ण कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। इसलिए ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा स्थूल रूप को धारण न करने वाले स्वरूप में स्थित परमाणु ही यथार्थ में सत् कहे जा सकते हैं । अतएव ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा निज स्वरूप ही वस्तु है, पर स्वरूप को अनुपयोगी होने के कारण वस्तु नहीं कह सकते। वर्तमान क्षण की पर्यायमात्र की प्रधानता से वस्तु का कथन करना ऋजुसूत्रनय है।'४ जैसे-इस समय मैं सुख की पर्याय भोगता हूँ। द्रव्य के सर्वथा निषेध करने को ऋजुसूत्रनयाभास कहते हैं, जैसे-बौद्ध लोग । बौद्ध लोग क्षण-क्षण में नाश होने वाली पर्यायों को ही वास्तविक मानकर पर्यायों के आश्रित द्रव्यों का निषेध करते हैं, इसलिए उनका मत ऋजुसूत्रनयाभास है। (५) शब्दनय-रूढ़ि से सम्पूर्ण शब्दों के एक अर्थ में प्रयुक्त होने को 'शब्दनय' कहते हैं । १५ जैसे शक्र, पुरन्दर, इन्द्र आदि एक अर्थ के द्योतक हैं। जैसे शब्द अर्थ से अभिन्न है, वैसे ही उसे एक और अनेक भी मानना चाहिए। इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि पर्यायवाची शब्द कभी भिन्न अर्थ का प्रतिपादन नहीं करते । क्योंकि उनसे एक ही अर्थ का ज्ञान होता है। अत: इन्द्रादि पर्यायवाची शब्दों का एक ही अर्थ है । जिस अभिप्राय से अर्थ कहा जाय उसे शब्द कहते हैं। अतः सम्पूर्ण पर्यायवाची शब्दों से एक ही अर्थ का ज्ञान होता है। 'तट:, तटी, तटम्' परस्पर विरुद्ध लिंग वाले शब्दों से पदार्थों के भेद का ज्ञान होता है। इसी प्रकार संख्या-एकत्वादि, काल-अतीतादि, कारक-कर्ता आदि और पुरुष-प्रथम पुरुष आदि के भेद से शब्द और अर्थ में भेद समझना चाहिए। परस्पर विरोधी लिंग, संख्यादि के भेद से वस्तु में भेद मानने को शब्दनय कहते हैं । वैयाकरण लोग शब्द आदि का अनुकरण करते हैं। कालादि के भेद से शब्द और अर्थ को सर्वथा अलग मानने को शब्दाभास कहते हैं, जैसे सुमेरु था, सुमेरु है और सुमेरु होगा-आदि भिन्न-भिन्न काल के शब्द भिन्न काल के शब्द होने से भिन्न-भिन्न अर्थों का ही प्रतिपादन करते हैं-जैसे अन्य भिन्न काल के शब्द ।१६ १२ विशेषप्रतिपादनपरो व्यवहारनयः । -आचार्य मलयगिरि १३ साम्प्रतमुत्पन्नं प्रत्युत्पन्नमुच्यते वर्तमानमिति । -आवश्यक सूत्र-टीका। १४ पच्चुपन्नग्गाही उज्जुसुओ णयविही मुणेअव्वो। -अनुयोगद्वार १५ इच्छइ विसेसियतर, पच्चुप्पण्णं णओ सद्दो। -अनुयोगद्वार १६ विरोध लिंग संख्यादि भेदाह भिन्न स्वभावताम् । तस्यैव मन्यमानोऽयं शब्द: प्रत्यवतिष्ठते । -संग्रहश्लोकाः आचारतासाचार्यप्रसा श्रीआनन्द श्रीआनन्दा अन्य ansomnim a AAAAAAADHANABA RAGALANDARAN ANNARRA NARAJJAAAAAAA xiwwwmovi Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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