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________________ memaramaarnamaAuraisamanaraswasundaen o menacasranAKAMARINAMAnsisteadacasinoaracaendrace Nx आचार्यप्रवर Wआचार्यप्रवचन श्रीआनन्दथश्रीआनन्दान्थ . Ayanvwayamvad Meriwiywww - श्रीचन्द चोरडिया, न्यायतीर्थ (द्वय) नयवाद : सिद्धान्त और व्यवहार की तुला पर जिसके द्वारा पदार्थों के एक अंश का ज्ञान हो उसे नय कहते हैं । किसी वस्तु में अन्य धर्मों का निषेध करके अपने अभीष्ट एकान्त अस्तित्व को सिद्ध करने को दुर्नय कहते हैं। जैसेघट ही है, वस्तु में अभीष्ट धर्म की प्रधानता से अन्य धर्मों का निषेध करने के कारण दुर्नय को मिथ्यानय भी कहा गया है। इसके विपरीत किसी वस्तु में अपने इष्ट धर्म को सिद्ध करते हुए अन्य धर्मों में उदासीन होकर वस्तु के विवेचन करने को नय (सुनय) कहते हैं, जैसे--यह घट है। नय में दुर्नय की तरह एक धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों का निषेध नहीं किया जा सकता, इसलिए नय को दुर्नय नहीं कहा जा सकता तथा नय में 'स्यात्' शब्द का प्रयोग न होने से इसे प्रमाण मी नहीं कह सकते । वस्तु की नाना दृष्टियों को कथंचित् सत् रूप विवेचन करने को प्रमाण कहते हैं ? -जैसे-कथंचित् घट सत् है (स्यात् कथंचित् घटः) । नय और प्रमाण के द्वारा दुर्नयवाद का निराकरण किया जाता है। नयों से वस्तु के सम्पूर्ण अंशों का ज्ञान नहीं होता; अतः नय को पूर्ण रूप से सत्य नहीं कह सकते ।२ विशेषावश्यक भाष्य में जिनभद्र क्षमाश्रमण ने नयों को प्रमाण के समान कहा है। उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय—ये चार अनुयोग महानगर में पहुंचने के दरवाजे हैं। प्रमाण से निश्चित किये हुए पदार्थों के एक अंश के ज्ञान करने को नय करते हैं। वस्तु का प्रमाण द्वारा निश्चय होने पर उसका नय से ज्ञान होता है। वस्तुओं में अनंतधर्म होते हैं। अत: नय भी अनंत होते INTE तम्हा सव्वे वि भिच्छादिट्ठी सपकखपडिबद्धा । अण्णोण्णणि स्सिया उण हवन्ति सम्मत्तसब्भावा । -सम्मतीतर्क भेदाभेदात्मके ज्ञये भेदाभेदाभिसन्धयः । ये तेऽपेक्षानपेक्षाभ्यां लक्ष्यन्ते नय दुर्नयाः || -लधीय० का० ३० | २ यथा हि समुद्रैकदेशो न समुद्रो नाप्यसमुद्रस्तथा नया अपि न प्रमाणं न वा अप्रमाणमिति । -जैन तर्कभाषा ३ प्रमाणपरिच्छिन्नस्यानन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकदेशग्राहिणस्तदितरांशाप्रतिक्षेपिणोऽध्यवसायविशेषा नया:। -जैन तर्कभाषा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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