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________________ कर्म-सिद्धान्त : भाग्य निर्माण कला ३८५ CUDIL भोग या पाप रूप होती है तो आत्मा के लिए अहितकारी होती है और वही प्रवृत्ति सेवा या पुण्य रूप होती है तो हितकारी हो जाती है । जिस प्रकार शराब पीने से मोह (बेहोशी) ग्रस्त व्यक्ति में जड़ता आ जाती है, उस की मस्तिष्क व इन्द्रियों की संवेदन शक्ति बहुत घट जाती है फिर जैसे-जैसे उनका मोह-नशा घटता जाता है उसकी मन, बुद्धि, इन्द्रियों की शक्तियां बढ़ती जाती हैं। इसी प्रकार पाप प्रकृतियां आत्मा को मोहग्रस्त-बेहोश करती हैं। उसमें जड़ता आ जाती है और उसकी मन, मति व इन्द्रिय शक्ति घट जाती है अतः वह चेतना का जहाँ विकास अत्यन्त कम है ऐसे वनस्पति आदि में जन्म लेता है। फिर जैसे-जैसे मोह (जड़ता) घटता जाता है उसमें चेतनता का विकास होता जाता है, उसकी इन्द्रिय, मन, बुद्धि में वृद्धि होती जाती है। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि हमारी राग-द्वेष की मात्रा जितनी कम होती जाती है उतने ही हम तटस्थ होते जाते हैं और हमारे सोचने-विचारने, अनुभव-संवेदन करने की शक्ति बढ़ती जाती है। कषाय की मन्दता रूप पुण्य से ही प्राणी को इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि की उपलब्धि होती है। माग्यपरिवर्तन की प्रक्रिया : करण कर्म-सिद्धान्त में जहाँ एक ओर यह विधान-नियम है कि बंधा हआ कर्म फल दिए बिना कभी नहीं छूटता है वहीं दूसरी ओर उन नियमों का भी विधान है जिनसे बन्धे हुए कर्मों मे परिवर्तन भी किया जा सकता है। इन्हीं नियमों को कर्मशास्त्र में करण कहा गया है। करण एक प्रकार से भाग्य परिवर्तन की प्रक्रिया है। करण के आठ प्रकार हैं :-(१) बन्धन करण (२) निधत्त करण (३) निकाचना करण (४) उदवर्तना करण (५) अपवर्तना करण (६) संक्रमण करण (७) उदीरणा करण और (८) उपमशना करण । करण उसे कहा जाता है जिसकी सहायता से क्रिया या कार्य हो । अर्थात् जो क्रिया या कार्य में कारण हो, हेतु हो । इन आठ प्रकारों से कर्म में क्रिया होती है । अतः इन्हें करण कहा जाता है। इन्हें भाग्य-परिवर्तन के हेतु भी कहा जा सकता है। बन्धन करण जिसके कारण आत्मा कर्म को ग्रहण कर बन्धन को प्राप्त हो वह बन्धन करण है। जिस प्रकार शरीर द्वारा ग्रहण किया गया पदार्थ शरीर के लिए हित-अहित का कारण बनता है। इसी प्रकार आत्मा द्वारा ग्रहण किए गए शुभ-अशुभ कर्म परमाणु आत्मा के लिए सौभाग्य-दुर्भाग्य के कारण बनते हैं । अतः जो दुर्भाग्य को दूर रखना चाहते हैं उन्हें अशुभ पाप प्रवृत्तियों से बचना चाहिये । जो सौभाग्य चाहते हैं उन्हें सेवा, परोपकार, वात्सल्य भाव आदि शुम प्रवृत्तियों को अपनाना चाहिये। निधत्त करण वह क्रिया जिससे पूर्व में बन्धे कर्म दृढ़ हों, निधत्त कहलाती है। जिस प्रकार किसी को ज्वर हो और वह उस अवस्था में घृत-तेल आदि का सेवन करे तो वह ज्वर कष्टसाध्य हो जाता है । अथवा किसी को अफीम का नशा करने की आदत हो और फिर गाँजे व सुलफे का नशा करने का निमित्त मिल जावे तो वह अफीम के नशे की आदत दृढ़ हो जाती है फिर प्रयत्नों से मात्रा में कमी-ज्यादा तो हो सकती है परन्तु सदा के लिए आदत मिटना कठिन हो जाता है। प्रतिदिन समय पर नशा करना ही पड़ता है। इसी प्रकार किसी कर्मप्रकृति का बन्ध शिथिल हो परन्तु उसी की सहयोगी अन्य प्रकृतियों का निमित्त मिल जाता है तो वह दृढ़ हो जाती है फिर प्रयत्नों से साधारण सा फेरफार तो हो सकता है परन्तु उसका रूपान्तरण व मिटना सम्भव न हो। कर्म का आचारसनाचार्यप्रवभिनेता श्रीआनन्दमयन्यश्रीआनन्दन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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