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________________ कर्म-सिद्धान्त : भाग्य-निर्माण की कला ३८१ संवेदन की वस्तुएं हैं जब उनके आकार-प्रकार व संरचना का भी मानव की प्रकृति व प्रवृत्ति का इतना संबंध है तो मानव के श्वसन, पाचन आदि अन्य संस्थानों की संरचना व संचालन के साथ भावों का अत्यंत घनिष्ट सम्बन्ध हो तो आश्चर्य की बात ही क्या है। वर्तमान में ऐसी मशीन का भी आविष्कार हो गया है जो मनुष्य के मस्तिष्क पर लगा देने पर यह बतला देती है कि यह मनुष्य सच बोल रहा है अथवा झठ । कर्मसिद्धान्त का महत्व ऊपर शारीरिक रोग और शरीर संरचना के साथ जिस मन के घनिष्ट सम्बन्ध के विषय में कहा गया है, इसे मनोविज्ञान में चेतनमन एवं कर्म सिद्धान्त में द्रव्यमन कहा जाता है । इस मन का निर्माण करने वाली एक और शक्ति है उसे मनोविज्ञान में अचेतनमन कहा जाता है और जैन दर्शन में कर्म या कार्मण शरीर कहा जाता है। इसका निर्माता है आत्मा। आत्मा अनंत विलक्षण गुण एवं शक्ति का भंडार है। आत्मा की इस विलक्षणता का ज्ञान बिरले ही व्यक्तियों को है। आज जड़ परमाणु की शक्ति के ज्ञान ने जगत को विस्मय में डाल दिया है। यह सर्वविदित है कि चेतन की शक्ति के समक्ष जड़ की शक्ति नगण्य है। चेतन जड़ की शक्ति को प्रकट करने, नियंत्रण करके उपयोग करनेवाला है । अतः जब जड़ परमाणु की आंतरिक शक्ति ही इतनी आश्चर्यकारी है तो जड़ के नियन्ता चेतन की आन्तरिक शक्ति कितनी चमत्कारिक होगी, इसकी कल्पना भी संभव नहीं है। जिस प्रकार जड़ परमाणु की शक्ति का संहार में भी उपयोग हो सकता है और सर्जन में भी। इसी प्रकार चैतन्य की शक्ति का भी विनाश में भी योग हो सकता है और विकास में भी । चैतन्य की शक्ति का उपयोग हिंसा, झूठ, ईर्ष्या, अपकार, प्रतिशोध आदि पाप प्रवृत्तियों में करना अपने जीवन का विनाश करना है, आपत्तियों-विपत्तियों को, आधि-व्याधि उपाधियों को निमंत्रण देना है। चैतन्य शक्ति का उपयोग करुणा, सेवा, परोपकार आदि सद्-प्रवृत्तियों में करना अपने जीवन का विकास करना है। कारण कि प्रवृत्ति के अनुरूप प्रकृति का निर्माण होता है। प्रकृति से वातावरण का निर्माण होता है। वातावरण से जीवन का निर्माण होता है । अत: चेतन जैसी शुभ-अशुभ प्रवृत्ति करता है वैसा ही उसके सुखदायी-दुखदायी जीवन का निर्माण होता है। कर्म-सिद्धान्त इस तथ्य को युक्तियुक्त सुन्दर वैज्ञानिक शैली में प्रस्तुत करता है। अतः कर्म-सिद्धान्त का शास्त्र भाग्य के संविधान का ही शास्त्र है। __ आधुनिक मनोविज्ञान के शीर्षस्थ विद्वान् 'चार्ल्स युग' का कथन है कि मनुष्य अपने व्यक्तित्व को उतनी ही दूर तक बढ़ा सकता है जितनी दूर तक वह अज्ञात मन की गहराई में छिपी शक्तियों को जानता है एवं उनका नियंत्रण करता है। उस अज्ञात मन में बिना भौतिक साधनों के दूरस्थ की घटनाओं को देखने की शक्ति है तथा वह अतीत काल में हुई घटनाओं को जान सकता है एवं बहुत दूर तक भविष्य का दर्शन भी कर सकता है। अभिप्राय यह है कि हमारे भावों एवं प्रवृत्तियों से ही हमारे जीवन का, व्यक्तित्व का निर्माण होता है । हमारी प्रवृत्तियों से कर्म का निर्माण होता है । कर्म की प्रकृति के अनुसार शरीर और जीवन की प्रत्येक घटना का निर्माण होता है। हमारे सुख-दुःख, सफलता-असफलता, जयपराजय, सम्पन्नता-विपन्नता, प्रभाव-अभाव आदि सब का मूल हमारा कर्म ही का फल है। हमारा वर्तमान जीवन हमारे कर्म का ही परिणाम है। हमारे जीवन के सुख-दुःख आदि का दायित्व हमारे पर ही है। कर्मफल का ही दूसरा नाम भाग्य है। अपने भाग्यविधाता हम स्वयं ही हैं। हमारी आत्मा ही हमारे भाग्य की निर्णायक है। हमारा ब्रह्म ही भाग्य को अंकित करने वाला ब्रह्मा है, हमारी आत्मा के अतिरिक्त अन्य कोई हमारे भाग्य का लिपि-लेखक ब्रह्मा नहीं है । VOL TA) .RAA LFINI WEDDI طعام مااععععععععععهخحهخلعهديه شعريهحعععاع आचार्यप्रवभिE आचार्यप्रवर आमा श्रीआनन्दन्थश्राआनन्दमयन् १७ 26 wweiveawwanmmmmove Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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