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________________ कर्म-सिद्धान्त : भाग्य-निर्माण की कला ३७६ प अतः विष जैसे ही शरीर में प्रवेश करता है शरीर में वमन, दस्त आदि प्रतिक्रियाएं उत्पन्न हो जाती हैं। किसी व्यक्ति के शरीर में रक्त की कमी को दूर करने के लिए अन्य व्यक्ति का रक्त प्रवेश कराया जाता है तो दोनों रक्तों को रासायनिक तत्वों में विषमता होने पर तत्काल शरीर में स्थित रक्त प्रविष्ट रक्त के प्रति अपनी प्रतिक्रिया प्रारंभ कर देता है। हृदय, गुर्दा आदि अंगरोपण में भी शरीर समान स्वभाववाले अंगों को ही स्वीकार करता है, भिन्न स्वभाव वाले को नहीं। निर्जीव पदार्थों में भी विजातीय द्रव्य से मिलने पर विकार तो उत्पन्न होता है परन्तु वे अपनी ओर से प्रतिक्रिया करने का प्रयत्न नहीं करते हैं। उनमें जो भी क्रियाएं होती हैं वे प्राकृतिक नियमानुसार स्वतः होती हैं । उनमें क्रियाएं ही होती हैं, प्रतिक्रियाएं नहीं । स्वर्ण में मिले हुए ताँबे को निकालने का यत्न स्वर्ण नहीं करता है। परन्तु सजीव पदार्थ में यह विशेषता है कि वह विजातीय द्रव्य के संयोग को बरदाश्त नहीं करता है। वह उसे निकालने के लिए स्वयं प्रयत्न करता है। शरीर, इन्द्रिय, रक्त, चर्म आदि जब तक जीव से संयुक्त हैं सजीव हैं। तब तक इनमें किञ्चित् भी विजातीय द्रव्य का संयोग हुआ नहीं कि उसे निकालने का प्रयत्न प्रारंभ कर देते हैं। पैर में काँटे का कण भी प्रवेश कर जाय, नेत्र में रेणु का अणु भी प्रवेश कर जाय तो उसे निकाले बिना चैन नहीं पड़ता है। तात्पर्य यह है कि सजीव विजातीय द्रव्य के संयोग से विकारग्रस्त होता है और उसका यह विकार रोग के रूप में प्रकट होता है। इसी सिद्धान्त की गहराई में प्रवेश करने पर तो ज्ञात होता है कि जीव के लिए अजीव मात्र विजातीय द्रव्य है। दोनों द्रव्यों के स्वभाव में मौलिक भिन्नता है, असमानता है, विषमता है। जीव का स्वभाव उपयोग है, चिन्मयता है, जानने, अनुभव करने का गुण है। अजीव का स्वभाव जड़ता है। अतः जब जीव के साथ अजीव का संयोग होता है तो जीव में विकार उत्पन्न हो जाता है। जीव के साथ अजीव के संयोग रूप विकार को ही जैनदर्शन में कर्म कहा है। कर्म-सिद्धान्त : चिकित्साशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में जिस प्रकार चिकित्साशास्त्र में रोगी व रोग का रूप, रोग का प्रकार, रोग के कारण, रोग रोकने के उपाय, रोग घटाने वाले पथ्य, रोग बढ़ाने वाले कुपथ्य, रोग का उपचार, रोग रहित अवस्था का स्वरूप आदि का वर्णन है। चिकित्साशास्त्र के ये सब अध्याय उसी चिकित्सा पद्धति का रूप धारण कर लेते हैं जिस अंग की चिकित्सा करने का लक्ष्य है। नेत्र से संबंधित नेत्र चिकित्सा, कर्ण से संबंधित कर्ण चिकित्सा, शरीर से संबंधित शारीरिक चिकित्सा, मन से सम्बन्धित मानसिक चिकित्सा कही जाती है। इसी प्रकार आत्मा से संबंधित विकारों के वर्णन को आध्यात्मिक चिकित्सा भी कहा जा सकता है। जीव को रोगी के रूप में और कर्म को रोग के रूप में लिया जाय और फिर गहराई से देखा जाय तो ज्ञात होगा कि जैन तत्वज्ञान आध्यात्मिक चिकित्सा का ही अनुसरण करता है। जैन तत्वज्ञान को आध्यात्मिक चिकित्साशास्त्र के रूप में देखा जाय तो रोगी का वर्णन जीवतत्व में, रोगोत्पादक पदार्थ का वर्णन अजीवतत्व में, रोगी के रूपों व प्रकारों का वर्णन बंधतत्व में, रोगोत्पत्ति के कारणों का वर्णन आश्रव तत्व में, रोगों के रोकने के उपायों का वर्णन संवरतत्व में, रोगों के उपचार का वर्णन निर्जरा तत्व में, रोग रहित पूर्ण स्वस्थ अवस्था का मोक्षतत्व में, रोगोत्पादक कुपथ्य चर्या-कार्यों का वर्णन पापतत्व में एवं स्वास्थ्य प्रदायक सुपथ्य चर्या-कार्यों का वर्णन पुण्यतत्व के रूप में किया गया है। इस प्रकार जैन तत्वज्ञान को आध्यात्मिक चिकित्साशास्त्र कहा जा सकता है । CHUAIMILIARNAJAAAAAAAAAAAAMALANIMALURALIABADASAnsumi ASALALASAAMACANAawaniranadianRISARMARKamudrCHARINAKAPawa आचार्यप्रवाआभनआचार्यप्रवास अभिन श्रीआनन्दयामा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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