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________________ धर्म का वैज्ञानिक विवेचन ३७५ ANCE CE का। यही नहीं, विश्व-रहस्य और सृष्टि के विषय में यह प्रस्थापना एक महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर संकेत करती है कि 'जिस द्रव्य से यह बुबुद् बनाया गया है वह साबुन की फिल्म है जो शून्य । आकाश का पर्याय है और साथ ही जिसकी झलाई शून्य काल पर की गई है। शून्य की यह अवधारणा धर्मशास्त्र के अनेक सिद्धांतों के समकक्ष बैठती है। तांत्रिकों का शून्य तत्त्व और उपनिषदों का ब्रह्म या नेति-नेति तत्त्व-इसी शून्य की प्रतिध्वनि है। इसे ही हाइड्रोजन का गोलाकार पिंड भी कह सकते हैं क्योंकि सृष्टि क्रम यहीं से आरम्भ माना गया है। इस वैज्ञानिक प्रस्थापना में 'हाइड्रोजन' एक द्रव्य के रूप में माना गया है और इस पिंड की चक्राकार गति क्रमशः संकोचन प्रक्रिया के द्वारा ठंडी होती गई और फलत: ग्रहों का निर्माण होता गया।१५ अतः सृष्टि रचना एक निरन्तर गतिशील प्रक्रिया है और धर्म में इस प्रक्रिया का कारण किसी 'आदि तत्त्व' को माना गया है । परन्तु विज्ञान में यह 'आदितत्त्व' (ब्रह्म, ईश्वर आदि) एक द्रव्य या पृष्ठभूमि-पदार्थ के रूप में मान्य है जो एक प्रक्रिया का फल है । धर्मशास्त्र के उपर्युक्त स्वरूप के प्रकाश में जेस्पर्स का एक महत्वपूर्ण कथन है जो ईश्वर और धर्मशास्त्र के आपसी सम्बन्ध को रूपायित करता है। वह कहता है कि ईश्वर की परिकल्पना ही धर्मशास्त्र का विषय है अथवा दूसरे शब्दों में, ईश्वर की परिकल्पना को ही धर्मशास्त्र कहा जा सकता है। १६ इसका तात्पर्य यह हुआ कि धर्मशास्त्र का क्षेत्र भी बौद्धिक अवधारणा का क्षेत्र है जो एक ऐसी भाषा का सृजन करता है जो प्रतीकों और जेस्पर्स के शब्दों में 'साइफर' (cypher) की सृजन-प्रक्रिया से गुजरता है। ज्ञान का कोई भी क्षेत्र 'सृजन' प्रक्रिया के इस महत्वपूर्ण दौर से अवश्य गुजरता है। क्योंकि ज्ञान की प्रक्रिया एक सृजन-प्रक्रिया है। देवी शक्ति की धारणा धर्मशास्त्र के इस भाषागत स्वरूप को ध्यान में रखकर ज्ञान के सापेक्ष महत्त्व का ही। प्रतिपादन होता है और इसके साथ ही साथ विकासवादी परम्परा के द्वारा भी इसकी पुष्टि होती है। जब विकासवाद एक नया सिद्धान्त था, तब उसे धर्म का विरोधी माना गया था परन्तु चितकों का एक ऐसा वर्ग उदित हो गया है जो विकास क्रम में क्रमश: प्रकट होती हुई दैवी-शक्ति को मानता है जिसके अनुसार ईश्वर की धारणा विकास-क्रम से जुड़ी हुई है और इस दृष्टि से, ईश्वर कोई निरपेक्ष तत्त्व न होकर एक सापेक्ष धारणा है। इसके विपरीत एक वर्ग ऐसा भी है जो इस विकासक्रम को जीवित जैविक-अंगों का एक दुर्बोध संयोजन मानते हैं। इसके अनुसार विकास-क्रम के द्वारा हम अपने ही प्रयोजनों की पूर्ति करते हैं और इस दृष्टिकोण के द्वारा हम ईश्वर के प्रयोजनों की पूर्ति करते हैं। विकासवादी-सिद्धान्त की यह एक विशेषता है कि वह मानव नामधारी प्राणी को एक विशिष्ट परिप्रेक्ष्य में देखता है और उसे विकास-क्रम का सबसे विशिष्ट प्राणी मानता है। यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय, तो विकास का प्रयोजन यह विशिष्टीकृत 'मानव' ही है और 'ईश्वर' का (या अन्य किसी धारणा का) प्रत्यय उसकी अवधारणा की शक्ति का फल है। अत: व्यक्तिगत रूप से मैं विकासवादी सिद्धांत को इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण मानता हूँ, क्योंकि इस मत में ईश्वर और मानव का सापेक्ष सम्बन्ध है, और ईश्वर, मानव की बौद्धिक प्रक्रिया का एक अवधारणात्मक प्रत्यय ही है । धर्म में ईश्वर का यही अवधारणात्मक रूप प्राप्त होता है और ईश्वर का साकार रूप, मानव की उसी महत्ता को स्वीकार करता है। धार्मिक 'परम तत्त्व' की भावना भी इसी तथ्य की ओर १५ द नेचर आफ यूनीवर्स' फेड हॉयल, पृ० ६२ १६ टूथ एण्ड सिम्बल, जेस्पर्स, पृ० ७५ Umay . T Niu M . - - - wwwraaeewwwwwwmarwarimanoparnwurav Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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