SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 432
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म का सार्वभौम रूप ३५७ तीसरा मौलिक तत्त्व है-अनेकान्तवाद। वह वस्तुतः मानव का जीवनधर्म है। समग्र मानवजाति का जीवनदर्शन है। संकुचित एवं अनुदार दृष्टि को विशाल और उदार बनाने वाला अनेकान्त ही है। परस्पर सौहार्द, सहयोग, सद्भावना एवं समन्वय का मूल प्राण है । अस्तु हम अनेकान्तवाद को समग्र मानवता के सहज विकास की, विश्वजन-मंगल की धुरी भी कह सकते हैं। अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह रूप धर्म ही विषमतापूर्ण विश्व की समाज-व्यवस्था में समता के नारे लगा सकता है। उपासना और कर्मकाण्ड में उलझा हुआ धर्म मानसिक समता की लौ प्रज्ज्वलित नहीं कर सकता। समता क्रिया है, अहिंसा प्रतिक्रिया; विषमता क्रिया है तो हिंसा प्रतिक्रिया। विज्ञान से विश्व शान्ति दूर है, धर्म से सन्निकट है। अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्त रूप धर्म से ही जन-मन में मंगल की भावना परिव्याप्त होती है। अन्त में, धर्म का वास्तविक अर्थ है "अपने सर्वोच्च विकसित रूप में उच्चतम और अधिक मूल्यवान के प्रति पूर्णतया समर्पण।" आनन्द-वचनामृत 0 जैसे आवश्यक खाद, धूप, हवा, पानी पाकर बीज में निहित विकासोन्मुख शक्ति का प्रस्फुटन होता रहता है, उसी प्रकार शिशु आत्मा में सुप्त विराट संस्कार अनुकूल वातावरण पाकर निखर उठते हैं । । कारा (जेल) का बंधन अनचाहा होता है, इसलिए वह मनुष्य को त्रासदायक लगता है। दारा (पत्नी) बंधन का मनचाहा होता है, इसलिए वह मनुष्य को आह्लाददायक लगता है। 7 कारा की कठोरता से भी दारा की कोमलता अधिक खतरनाक होती है। - दीपक चाहे मिट्टी का हो, धातु का हो या सोने का, उसका महत्व उसकी काया से नहीं, बाती से है। 0 साधक चाहे निम्न कुल का हो या उत्तम कुल का, उसका गौरव कुल या वर्ण के बाह्यरूप में नहीं, किंतु ज्ञान की जगमगाती ज्योति से है। तलवार का मूल्य उसकी धार में है, सितार का मूल्य झंकार में है, मां का मूल्य उसके प्यार में है, साधु का मूल्य उसके आचार में है। - चपलता बालक का गुण है, युवक का दोष है। - पुरुष का सौन्दर्य है पुरुषार्थ, नारी का सौन्दर्य है लज्जा। Jain Education International wowwwimwww.wavivaranaviramerammmmmmmumoveme For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy