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________________ जैन-दर्शन का कबीर-साहित्य पर प्रभाव ३५३ ROKES SH हैं तथा वर्ग-विशेष के स्वार्थ ही उनमें सुरक्षित हैं। अतः उनका अध्ययन सामान्य जनता के लिये उपयुक्त नहीं है। योगीन्दु मुनि ने उक्त कोरे शास्त्रज्ञान पर अच्छा प्रकाश डाला है। उनका दृष्टिकोण था कि व्यक्ति शास्त्रों का अध्ययन करने के पश्चात् यदि अपनी आत्मा को नहीं पहचानते तो वे निश्चित ही जड़ पदार्थ के तुल्य हैं। उनका ज्ञान कल्याणकारी-पथ का प्रदर्शक बनने योग्य नहीं - सत्यु पढंतह ते वि जड़ अप्पा जेण मुणंति । तहि कारणि ए जीव फुड ण हुणिव्वाण लहंति ॥५३॥ -योगसार, पृ० ३८३ मुनि रामसिंह ने भी इसी विषय को लेकर 'पाहुडदोहा' में अपने विचारों को व्यक्त किया है बहुयइँ पढियइँ मुढ़ पर तालु सुक्कइ जेण । एक्कु जि अक्खरु तं पढ़हु शिवपुरि गम्महि जेण ॥१७॥ -पाहुडदोहा, पृ० ३० अर्थात् बहुत पढ़ा जिससे तालु सूख गया पर मूर्ख ही रहा । उस एक ही अक्षर को पढ़, जिससे शिवपुरी का गमन हो। मुनि योगीन्द्र एवं रामसिंह के भावों को कबीर ने ज्यों-का-त्यों अपनी भाषा में व्यक्त कर दिया है पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोई। ऐक आषरं पीव का, पढ़े सु पंडित होई ॥४॥ -कबीर ग्रन्थावली, पृ० २०२ इस प्रकार स्पष्ट है कि सन्त कबीर जैन-दर्शन के मूलभूत सिद्धान्तों-आत्मा, परमात्मा, ज्ञान, चेतन, कर्म, समाधि प्रभति से पर्याप्त प्रभावित रहे हैं। विशेषतया कुन्दकुन्द, गुणभद्र एवं सर्वप्रसिद्ध रहस्यवादी जैन कवि योगीन्दु, मुनि रामसिंह एवं आनन्द तिलक की क्रान्तिकारी जैनदार्शनिक विचार-धारा ने कबीर पर अपनी सर्वाधिक गहरी छाप छोड़ी है। कहीं-कहीं तो उक्त जैन कवियों का कबीर ने उसी प्रकार अनुकरण किया है, जिस प्रकार 'गोस्वामी तुलसीदास' ने अपने 'रामचरित मानस' में स्वयम्भूकृत पउमचरिउ का अनुकरण किया है। सन्त कबीर का जैनेतर परिवार में जन्म होना, प्रकृति की भूल भले ही कही जा सके, किन्तु ऐसा अवश्य प्रतीत होता है कि उन पर जैनदर्शन एवं जैनधर्म का पूर्व संस्कार अवश्य रहा है तथा उनकी गणना उस क्रान्तिकारी जैन-परम्परा में की जा सकती है, जिस परम्परा में कई युगसष्टा जैन-कवियों ने पाखण्डों एवं धर्म के नाम पर होने वाले स्वार्थपूर्ण धार्मिक कृत्यों और लोक में फैले हुए अन्धविश्वासों एवं जड़ता के विरोध में कड़ी-से-कड़ी डाँट-फटकार लगाई थी। प्रस्तुत निबन्ध में उक्त विषयों का संक्षिप्त तुलनात्मक विवेचन ही किया जा सकता है । आवश्यकता इस बात की है कि जैनदर्शन एवं कबीर-साहित्य का गम्भीर एवं विस्तृत तुलनात्मक अध्ययन किया जाय । यह अध्ययन उन तथाकथित विद्वानों के लिये एक आदर्श उदाहरण का कार्य करेगा, जिन्होंने अपने अन्वेषणो में मात्र इस्लाम के एकेश्वरवाद, वैष्णवों के अहिंसा प्रपत्तिवाद, उपनिषदों के ब्रह्मवाद से ही कबीर को प्रभावित माना है। उन आलोचकों ने निस्संदेह ही हृदय की संकीर्णता अथवा जैनदर्शन के अध्ययन के अभाव में ही कबीर को जैनदर्शन से प्रभावित होने का उल्लेख नहीं किया, जबकि वस्तुस्थिति भिन्न ही है। AnguantuARAriendaaiJ ANWo MAMMALAJaiURAIAPawatsARIAASARJAAAw ..... ............... arARIANAMAAIAAJRALAMALAIADIA आपाप्रवभिनआचार्यप्रवभि श्रीआनन्द श्रीआनन्द ArvinA Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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