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________________ LARKALANKAJAvasna NSINIचार आगामप्रवभिन श्राआनन्द श्राआनन्द अभिन 4 . 2 wwwrawi ३४० धर्म और दर्शन वाटा अपना पति घर में ही मिल जाता है। मिलने पर वे दोनों किस प्रकार एकाकार और समरस हो जाते हैं, यह निम्न पद्यों से देखिये पिय मोरे घट मैं पिय माहि, जलतरंग ज्यों दुविधा नाहिं । पिय मो करता मैं करतूति, पिय ज्ञानी मैं ज्ञानविभूति ।। पिय सुखसागर मैं सुख-सींव, पिय शिव मन्दिर मैं सिव-नींव । पिय ब्रह्मा मैं सरस्वति नाम, पिय माधव मो कमला नाम ॥ पिय शंकर मैं देवि भवानि, पिय जिनवर मैं केवलवानि । पिय भोगी मैं भुक्तिविशेष, पिय जोगी मैं मुद्राभेष ॥38 रूपचन्द ने परमात्मा की महिमा को जानने का अथक प्रयत्न किया, पर जान नहीं सके । तब कह उठे प्रभु तेरी महिमा जानि न जाई॥ नय विभाग विन मोह मूढ जन, मरत बहिर्मुख धाई ॥१॥ विविध रूप तव रूप निरूपत, बहुतै जुगति बनाई। कलपि कलपि गज रूप अंध, ज्यों झगरत मत समुदाई ॥२॥ विश्वरूप चिद्रूप एक रस, घट घट रह्यउ समाई। भिन्न भाव व्यापक जल थल, ज्यौं अपनी दुति दिनराई ॥३॥ मारयउ मन जारय उ मनमथु, अरु प्रति पाले खटुकाई । बिनु प्रसाद विन सासति, सुरनर फणियत सेवत पाई ॥४॥ मन वच करन अलख निरंजन, गुण सागर अति साई। रूपचन्द अनुभव करि देख हुं, गगन मंडल मनु लाई ॥५॥ द्यानतराय साधना करते-करते जब थक गये तो दीनदयाल को उलाहना देते हुए कहते हैं कि तुम तो मुक्ति में जाकर बैठ गये और हम अभी संसार में ही भटक रहे हैं । तीनों काल तुम्हारा नाम जपने पर भी तुम हमको कुछ नहीं देते और कुछ नहीं तो कम-से-कम हमारे राग-द्वेष को तो टाल दो तुम प्रभु कहियत दीनदयाल ।। आपन जाय मुकति में बैठे, हम जु रुलत जग जाल ॥१॥ तुमरी नाम जपें हम नीके, मन वच तीनों काल । तुम तो हमको कछु देत नहिं, हमरो कौन हवाल ॥२॥ बुरे भले हम भगत तिहारे, जानत हो हम चाल।। और कछुनहिं यह चाहत हैं, राग-दोष को टाल ॥३॥ हम सौं चूक परी सो बकसो, तुम तो कृपा विशाल । द्यानत एक बार प्रभु जगते, हमको लेह निकाल ॥४॥ इस प्रकार जैन कवियों ने 'आतमराम' की बात कहकर 'परमातम' की अनुभूति को विविध रूप से निहारा है। उन्होंने जैनेतर देवों को भी नमस्कार करने में हिचक नहीं दिखाई, बशर्ते कि वे वीतरागी हैं । वीतरागी परमात्मा की स्तुति में उन्होंने कहीं दास्यभाव उकेरा है तो कहीं दाम्पत्य ( VARI ३६ बनारसीविलास, पृ० १६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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