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________________ व मनाचार्यप्रवर आभार पावभाआनन्द अन्य श्रीआनन्दा अन्य ३३६ धर्म और दर्शन सिद्धान्ततः नास्तिक की वह परिभाषा नितान्त असंगत है। नास्तिक और आस्तिक की परिभाषा वस्तुतः पारलौकिक अस्तित्व की स्वीकृति और अस्वीकृति पर निर्भर करती है। आत्मा और परलोक के अस्तित्व को स्वीकार करने वाला आस्तिक और उसे अस्वीकार करने वाला नास्तिक कहा जाना चाहिए था। पाणिनि सूत्र "अस्तिनास्ति दिष्टं मतिः।" (४.४-६०) से भी यह बात पुष्ट हो जाती है। जैनसंस्कृति के अनुसार आत्मा अपनी विशुद्धतम अवस्था में स्वयं ही परमात्मा का रूप ग्रहण कर लेता है। दैहिक और मानसिक विकारों से वह दूर होकर परमपद को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार यहां स्वर्ग, नरक, मोक्ष आदि की व्यवस्था स्वयं के कर्मों पर आधारित है । अतः जैनदर्शन की गणना नास्तिक दर्शनों में करना नितान्त असंगत है। अध्यात्मवाद और दर्शन जहां तक अध्यात्मवाद और दर्शन के सम्बन्ध का प्रश्न है, वह परस्पराश्रित है। अध्यात्मवाद योगसाधना है जो साक्षात्कार करने का एक साधन है और दर्शन उस योग-साधना का बौद्धिक विवेचन है। अध्यात्मवाद तत्त्वज्ञान प्रधान है और दर्शन उसकी पद्धति और विवेचन करता है। अध्यात्मवाद अनुभूति पर आधारित है जबकि दर्शन ज्ञान पर आधारित है। इस प्रकार दर्शन अध्यात्मवाद से भिन्न नहीं हो सकता। अध्यात्मवाद की व्याख्या और विश्लेषण दर्शन की पृष्ठभूमि में ही संभव हो पाता है। दोनों के अंतर को समझने के लिए हम दर्शन के दो भेद कर सकते हैंआध्यात्मिक रहस्यवाद और दार्शनिक रहस्यवाद । आध्यात्मिक रहस्यवाद आचार-प्रधान होता है और दार्शनिक रहस्यवाद ज्ञानप्रधान । अतः आचार और ज्ञान की समन्वयावस्था ही सच्चा अध्यात्मवाद अथवा रहस्यवाद है। रहस्यभावना किसी-न-किसी सिद्धान्त अथवा विचारपक्ष पर आधारित रहती है और उस 'विचारपक्ष का अटूट सम्बन्ध जीवन-दर्शन से जुड़ा रहता है, जो एक नियमित आचार और दर्शन पर प्रतिष्ठित रहता है। साधक उसी के माध्यम से रहस्य का साक्षात्कार करता है। वही रहस्य जब अभिव्यक्ति के क्षेत्र में आता है तो काव्य बन जाता है और जब विचार के क्षेत्र में आता है तो दर्शन बन जाता है। काव्य में अनुभूति की अभिव्यक्ति का प्रयत्न किया जाता है और उस अभिव्यक्ति में स्वभावतः श्रद्धा-भक्ति का आधिक्य हो जाता है। धीर-धीरे अंध-विश्वास, रूढ़ियां, चमत्कार, प्रतीक, मंत्र-तंत्र आदि जैसे तत्त्व बढ़ने और जुड़ने लगते हैं। अध्यात्मवाद बनाम रहस्यवाद के प्रमुख तत्त्व रहस्यवाद का क्षेत्र असीम है, उस अनन्त शक्ति के स्रोत को खोजना ससीम शक्ति के सामर्थ्य के बाहर है। अतः ससीमता से असीमता और परम विशुद्धता तक पहुंच जाना तथा चिदानंद चैतन्यरस का पान करना साधक का मूल उद्देश्य रहता है। इसलिए रहस्यवाद का प्रस्थानबिन्दु संसार है, जहां प्रात्याक्षिक और अप्रात्याक्षिक सुख-दुःख का अनुभव होता है और परम विशुद्धावस्था रूप चरम लक्ष्य को प्राप्त करता है। वहां पहुंचकर साधक कृत-कृत्य हो जाता है और उसका भवचक सदैव के लिए समाप्त हो जाता है। इस अवस्था की प्राप्ति का मार्ग अत्यन्त रहस्य अथवा गुह्य है। इसलिए साधक में विषय के प्रति जिज्ञासा और औत्सुक्य जितना अधिक जागरित होगा, उतना ही उसका साध्य समीप होता चला जायगा। रहस्य को समझने और अनुभूति में लाने के लिए निम्नलिखित प्रमुख तत्त्वों का आधार लिया जा सकता है १. जिज्ञासा और औत्सुक्य, २. संसारी आत्मा का स्वरूप, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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