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________________ श्री आनन्द अन्थ W धर्म और दर्शन Fi श F आर्यन अभिनन्दन ३२४ मार्थिक रूप ही ऐसा है, जो शब्द ग्राह्य नहीं । अतएव उसका वर्णन नहीं किया जा सकता अर्थात् सापेक्ष अवक्तव्यता का आधार वचनप्रयोग है और निरपेक्ष अवक्तव्यता का आधार वस्तु का पारमार्थिक रूप है । स्याद्वाद के भंगों में जो अवक्तव्य भंग है, वह सापेक्ष अवक्तव्य है और वक्तव्यत्वअवक्तव्यत्व ऐसे दो विरोधी धर्मों को लेकर जैनाचार्यों ने जो स्वतंत्र सप्तभंगों की योजना की, उसका मूल निरपेक्ष अवक्तव्य प्रतीत होता है । इतनी चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि उपनिषदों के समय तक ( १ ) सत् (विधि), (२) असत् (निषेध), (३) सदसत् (उभय), (४) अवक्तव्य ( अनुभय) ये चार पक्ष स्थिर हो चुके थे । इन चार पक्षों की परंपरा बौद्ध त्रिपिटक से भी सिद्ध होती है। भगवान बुद्ध के समयपर्यन्त एक ही विषय के चार विरोधी पक्ष उपस्थित करने की शैली दार्शनिकों में प्रचलित थी । त्रिपिटकगत संजय बेलट्ठपुत्र के मत वर्णन से भी यही सिद्ध होता है । यहाँ इतना विशेष समझना है कि भगवान बुद्ध ने प्रश्नों को अव्याकृत इसलिये कहा कि वे उन प्रश्नों का 'हां' या 'ना' में उत्तर नहीं देना चाहते थे, जबकि भगवान् महावीर ने अस्ति आदि चारों पक्षों का समन्वय करके सभी पक्षों को भेद से स्वीकार किया है। भगवान महावीर के स्यादवाद और संजय के भंगजाल में इतना अंतर है कि स्यादवाद प्रत्येक भंग का स्पष्ट रूप से नयवाद और अपेक्षावाद का समर्थन कर निश्चय करता है और संजय कोई निश्चय नहीं करता है और अज्ञानवाद में कर्तव्य की इतिश्री समझता है । जैनागमों में भी कई पदार्थों के वर्णन के लिये विधि, निषेध, उभय और अनुभय के आधार पर विकल्प किये हैं । जैसे - ( १ ) आत्मारम्भ, (२) परारम्भ, (३) तदुभयारम्भ, (४) अनारम्भ । इससे यह फलित होता है कि भगवान महावीर के समयपर्यन्त विधि आदि अनुभय पर्यन्त उक्त चार पक्ष स्थिर हो चुके थे और संभवतः इन्हीं पक्षों का भगवान महावीर ने समन्वय किया होगा । उस स्थिति में स्याद्वाद के निम्नलिखित मौलिक भंग फलित होते हैं। : (१) स्याद् सत् (विधि), (२) स्याद् असत् (निषेध), (३) स्याद् सत् स्याद् असत् (उभय ), (४) स्यादवक्तव्य ( अनुभय ) । इन चार भंगों में से अंतिम भंग अवक्तव्य दो प्रकार से प्राप्त हो सकता है- ( १ ) प्रथम के दो भंग रूप से वाच्यता का निषेध करके और ( २ ) प्रथम के तीनों भंग रूप से वाच्यता का निषेध करके । इनमें से प्रथम रूप की स्थिति ऋग्वेद कालीन और दूसरे रूप की स्थिति उपनिषद् कालीन प्रतीत होती है। जैन आगमों में स्याद्वाद के भंगों में जो अवक्तव्य को तीसरा स्थान दिया गया, वह इतिहास की दृष्टि से संगत मालूम होता है। इसका अनुसरण आचार्य उमास्वाति ( तत्वार्थ भा. ५ - ३१), सिद्धसेन ( सन्मति १ - ३६) आदि ने किया और अवक्तव्य को चौथा स्थान देने का अनुसरण आचार्य समन्तभद्र (आप्त मी. का. १६) आदि ने किया । आचार्य ने कुन्दकुन्द दोनों मतों का अनुसरण किया है । Jain Education International भगवान महावीर द्वारा विभिन्न मतवादों का समन्वय कैसे ऋग्वेद से लेकर भगवान बुद्ध पर्यन्त जो विचारधारा प्रवाहित हुई, प्रथम एक पक्ष उपस्थित हुआ— सत् या असत् का । उसके विरोध में पक्ष उठा असत् या सत् का । इनका समन्वय करने के लिये किसी ने कह दिया कि तत्त्व न सत् कहा जा सकता है और न असत् कहा जा सकता है । वह अवक्तव्य है । किसी ने दोनों विरोधी पक्षों को मिलाकर कह दिया कि वह सदसत् है । विचारधारा के उपर्युक्त पक्ष, विपक्ष और समन्वय ये तीन क्रमिक सोपान हैं । किया गया, यह द्रष्टव्य है । उससे यह प्रतीत होता है कि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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