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________________ स्यावाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन ३२१ भगवान् बुद्ध जिन प्रश्नों का उत्तर विधि रूप से नहीं देना चाहते थे, उनका उत्तर देने में भगवान महावीर अनेकान्तवाद का आश्रय लेकर समर्थ हए। उन्होंने प्रत्येक वाद की पृष्ठभूमि, उसकी मर्यादा, उत्थान होने की अपेक्षा को समझने का प्रयत्न किया और फलितार्थ को नयवाद के रूप में दार्शनिकों के समक्ष रखा और यह नयवाद अनेकान्तवाद-स्याद्वाद का मूलाधार बन गया। भगवान् बुद्ध द्वारा 'अव्याकृत' माने गये धर्म आपेक्षिक हैं और अनेकान्तवाद द्वारा आपेक्षिक धर्मों का अपेक्षादृष्टि से कथन होता है। अतएव भगवान बुद्ध द्वारा अव्याकृत माने गये प्रश्नों के सम्बन्ध में यहाँ संक्षेप में विवेचन किया जाता है । __भगवान बुद्ध के अव्याकृत प्रश्नों में से प्रथम चार लोक की नित्यता (शाश्वतता)-अनित्यता (अशाश्वतता) और सान्तता-अनन्तता से सम्बन्धित हैं। उनमें से लोक की सान्तता और अनन्तता के विषय में भगवान महावीर द्वारा किया गया स्पष्टीकरण भगवतीसूत्र के स्कन्दक परिव्राजक के अधिकार (२-१-६) में उपलब्ध है-लोक द्रव्य की अपेक्षा से सान्त और पर्यायों की अपेक्षा अनन्त है। काल की अपेक्षा से लोक अनन्त और क्षेत्र की अपेक्षा सान्त है। यहाँ मुख्यतः सान्त और अनन्त शब्दों को लेकर अनेकान्तवाद की स्थापना की गई है। लोक की शाश्वतता और अशाश्वतता के बारे में भगवान महावीर का अनेकान्तवादी मंतव्य इस प्रकार है कि लोक शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है। त्रिकाल में ऐसा एक भी समय नहीं, जब लोक किसी-न-किसी रूप में न हो, अतएव वह शाश्वत है। लोक अशाश्वत भी है, क्योंकि लोक सदैव एक रूप नहीं रहता है। उसमें अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी के कारण अवनति और उन्नति होती रहती है। सर्वथा शाश्वत में परिवर्तन नहीं होता है, अतएव उसे अशाश्वत भी मानना चाहिए। यहाँ लोक का मतलब है, जिसमें पाँच अस्तिकाय-धर्म, अधर्म, आकाश, जीव, पुद्गल हैं। भगवान् बुद्ध ने 'जीव और शरीर का भेद है या अभेद हैं। इस प्रश्न को अव्याकृत माना है । इस विषय में भगवान महावीर ने (भगवती० १३-७-४६५) आत्मा को शरीर से अभिन्न भी कहा है और भिन्न भी कहा है। उक्त कथन पर दो प्रश्न उपस्थित होते हैं-यदि शरीर आत्मा से अभिन्न है तो आत्मा की तरह शरीर को भी अरूपी और सचेतन होना चाहिए। इसके उत्तर में कहा है कि शरीर रूपी भी है और अरूपी भी है । वह सचेतन भी है और अचेतन भी है। जब शरीर आत्मा से पृथक् माना जाता है, तब वह रूपी और अचेतन है और जब शरीर को आत्मा से अभिन्न माना जाता है, तब वह अरूपी और सचेतन है। भगवान बुद्ध के मत से यदि शरीर को आत्मा से भिन्न माना जाये, तब ब्रह्मचर्यवास सम्भव नहीं और अभिन्न माना जाये तब भी ब्रह्मचर्यवास सम्भव नहीं, किन्तु इन दोनों का समाधान करते हए भगवान महावीर ने कहा कि यदि आत्मा को शरीर से अत्यन्त भिन्न माना जाये, तब काय-कृत कर्मों का फल उसे नहीं मिलना चाहिए। अत्यन्त भेद मानने पर अकृतागम दोष आ । जाता है और यदि अत्यन्त अभिन्न माना जाये तो शरीर का दाह हो जाने पर आत्मा भी नष्ट होगी, जिससे परलोक सम्भव नहीं रहेगा। इस प्रकार कृतप्रणाश दोष की आपत्ति होगी, परन्तु एकान्त भेद और एकान्त अभेद मानने पर जो दोष होते हैं, वे उभयवाद मानने पर नहीं होते। दूसरी बात यह है कि जीव और शरीर का भेद इसलिए मानना चाहिए कि शरीर का नाश हो जाने पर भी आत्मा दूसरे जन्म में मौजूद रहती है या सिद्धावस्था में अशरीरी आत्मा भी होती है । अभेद इसलिए मानना चाहिए कि संसारावस्था में शरीर और आत्मा का सम्बन्ध नीरक्षीरवत् होता है। इसीलिए शरीर से किसी वस्तु का स्पर्श होने पर आत्मा में संवेदन होता है। कायिक कर्म का विपाक आत्मा में होता है। FACE HEAL भO عرعر عرعر عرعر عرععهده AAAAJRAJAJARi c ewalNORMASAJANIGAMANARAaru-A आपाप्रवन आभभापायप्रवर अभि श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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