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________________ स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन ३१७ r पूर्व में यह संकेत किया गया है कि विचार के साथ ही दर्शन का प्रारम्भ हुआ। विश्व के स्वरूप, उसकी उत्पत्ति आदि के बारे में नाना प्रकार के प्रश्न और उनका समाधान विविध प्रकार से प्राचीन काल से होता आया है। इसके साक्षी ऋग्वेद से लेकर उपनिषद् आदि समस्त दार्शनिक सूत्र एवं टीका ग्रंथ आदि हैं। ऋग्वेद में दीर्घतमा तपस्वी विश्व के मुल कारण और स्वरूप की खोज में लीन होकर प्रश्न करता है कि इस विश्व की उत्पत्ति कैसे हुई, इसको कौन जानता है ? अंत में वह कहता है कि 'एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' सत् तो एक ही है किन्तु विद्वान उसका वर्णन कई प्रकार से करते हैं, अर्थात् एक ही तत्त्व के विषय में नाना प्रकार के विचार, वचनप्रयोग देखे जाते हैं। इस वचनप्रयोग में मनुष्य-स्वभाव की उस विशेषता के दर्शन होते हैं, जिसे हम समन्वयशीलता कहते हैं। इसी समन्वयशीलता का शास्त्रीय रूप स्याद्वाद है। विश्व के कारण की जिज्ञासा में से ही अनेक विरोधी मतवाद उत्पन्न हए, जिनका निर्देश उपनिषदों में हुआ है। जिसको जैसा सूझ पड़ा, उसने वैसा कहना शुरू कर दिया। इस प्रकार मतों का एक जाल बन गया किन्तु उन सभी मतवादियों का समन्वय स्याद्वाद द्वारा हो जाता है। विश्व का मूल कारण क्या है ? वह सत् है या असत् है। सत् है तो पुरुष है या पुरुषतर-- जल, वायु, अग्नि, आकाश आदि में से कोई एक ? इन प्रश्नों का उत्तर उपनिषदों के ऋषियों ने अपनी-अपनी बौद्धिक प्रतिभा से दिया और नाना मतवादों की सृष्टि खड़ी कर दी। किसी के मत से असत् से सत् की उत्पत्ति हुई । किसी के मत से सत् से असत् की उत्पत्ति हुई । सत्कारणवादियों ने कहा कि असत् से सत् की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? सर्व-प्रथम एक अद्वितीय सत् ही था, उसी ने सोचा मैं अनेक होऊँ और क्रमशः सृष्टि की उत्पत्ति हुई। लेकिन सत्कारणवादियों में भी मतैक्य नहीं था। किसी ने जल को, किसी ने वायु को, किसी ने अग्नि को, किसी ने आकाश को और किसी ने प्राण को विश्व का मूल कारण माना। इन सभी वादों का सामान्य तत्व यह है कि विश्व के मूलकारण रूप में कोई आत्मा या पुरुष नहीं। इन सभी वादों के विरुद्ध अन्य ऋषियों का मत है कि इन जड़तत्वों से सृष्टि उत्पन्न नहीं हो सकती, मूल में कोई चेतनतत्व कर्ता होना चाहिये। किसी के मत से प्रजापति से सृष्टि की उत्पत्ति हुई। किसी ने आत्मा को मूल कारण मानकर उसी में से स्त्री और पुरुष की उत्पत्ति के द्वारा क्रमशः संपूर्ण विश्व की सृष्टि मानी। किसी ने आत्मा को उत्पत्ति का कर्ता नहीं, किन्तु कारणमात्र माना। किसी ने ईश्वर को ही जगत्कर्ता माना और उसी को मूलकारण कहा। इस विषय में संक्षेप में यों कहा जा सकता है कि किसी के मत से असत् से सत् की उत्पत्ति होती है, किसी के मत से विश्व का मूल तत्व सत् है। किसी के मत से वह सत् जड़ है और किसी के मत से वह तत्व चेतन । इनके अलावा किन्हीं ने काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत, पुरुष, इन सभी का संयोग और आत्मा इन में से किसी एक को कारण माना है। इन नाना वादों में से आगे चलकर आत्मवाद की मुख्यरूप से प्रतिष्ठा हुई और उपनिषदों के ऋषि अंत में इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि विश्व का मूलकारण या परम तत्व आत्मा ही है। परमेश्वर को भी जो आत्मा का आदि कारण है, आत्मस्थ देखने को कहा है। उपनिषदों का ब्रह्म और आत्मा भिन्न नहीं है किन्तु आत्मा ही ब्रह्म है, ऐसा कहा गया है। इसी आत्मतत्व, ब्रह्म-तत्व को जड़ और चेतन जगत का उपादानकरण, निमित्तकरण या अधिष्ठान मानकर दार्शनिकों ने केवलाद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत, शुद्धाद्वैत का समर्थन किया है ___ इसके साथ ही उपनिषदकाल में कुछ लोग पृथ्वी आदि महाभूतों से आत्मा का समुत्थान SRI RANA SAHARSAMMImaanuarAIMAAnandama nawaranawraisadnamaAASANNIAMS nanRIAAAAAJAJANATAVALIAAAAAAB Res आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवर श्रीआनन्दन्थ श्रीआनन्द अन्य wimmininavaranewmomonianpinirvie Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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