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________________ anmarriaJAAAAAAAAAAAAAAAAALANANAirtanvartam ICC शकस श्रीआनन्दग्रन्थश्राआनन्दान्थ५१ न्यायप्रवामिनी ३०० धर्म और दर्शन लेती है। यह परम्परा मन के पर्याय और अर्थपर्याय में लिंग और लिङ्गी का सम्बन्ध नहीं मानती। मन एकमात्र सहारा है। जैसे कोई व्यक्ति यह कहे कि "सूर्य बादलों में है" इसका तात्पर्य यह नहीं कि-बादल सूर्य के जानने में कारण है। बादल तो सूर्य को जानने के लिए आधार है। वस्तुतः प्रत्यक्ष तो अर्थ का ही होता है । इसके लिए मन रूप आधार की आवश्यकता है।६६ ___ आचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमण का कथन है कि मनःपर्याय ज्ञानी मन की विविध अवस्थाओं का प्रत्यक्ष करता है। किन्तु उन अवस्थाओं में जो अर्थ रहा हुआ है, उसका अनुमान करता है। अर्थात् यह परम्परा अर्थ का ज्ञान अनुमान से मानती है। उसका कथन है कि मन का ज्ञान मुख्य है । अर्थ का ज्ञान उसके पश्चात् की वस्तु है। मन के ज्ञान से अर्थ का ज्ञान होता है । सीधा अर्थज्ञान नहीं होता है। मनःपर्याय का अर्थ ही यह है कि मन की पर्यायों का ज्ञान, न कि अर्थ की पर्यायों का ज्ञान ।६७ उपर्युक्त दोनों परम्पराओं में द्वितीय परम्परा अधिक तर्कसंगत है। क्योंकि मनःपर्यायज्ञान से साक्षात् अर्थज्ञान होना सम्भव नहीं है। उसका विषय रूपी द्रव्य का अनन्तवां भाग है।६८ यदि मनःपर्यायज्ञान मन के सभी विषयों का साक्षात् ज्ञान कर लेता है तो अरूपी द्रव्य भी उसके विषय हो जाते हैं । क्यों कि मन के द्वारा अरूपी द्रव्य का भी चिन्तन हो सकता है। जबकि इस प्रकार नहीं होता। जितने मूर्त द्रव्यों का अवधिज्ञानी साक्षात्कार करता है, उन से कम का मनःपर्यायज्ञानी करता है । अवधिज्ञानी सभी प्रकार के पुद्गल द्रव्यों को ग्रहण कर सकता है। किन्तु मनःपर्यायज्ञानी उनके अनन्तवें भाग अर्थात् मन रूप बने हुए पुद्गलों का मानुषोत्तर क्षेत्र के अन्तर्गत ही ग्रहण करता है। मन का साक्षात्कार हो जाने के पश्चात् उसके द्वारा चिन्तित अर्थ का परिज्ञान अनुमान से हो सकता है। ऐसा होने पर मन के द्वारा सोचे गये मूर्त-अमूर्त सभी द्रव्यों का ज्ञान हो सकता है।६६ दो प्रकार मनःपर्यायज्ञान के ऋजुमति और विपुलमति ये दो प्रकार हैं।७० ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति ज्ञान अधिक विशुद्ध होता है । ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति मन के सूक्ष्म परिणामों को भी जान सकता है। दोनों में दूसरा अन्तर यह भी है कि ऋजुमति प्रतिपाती है अर्थात् उत्पन्न होने के पश्चात् नष्ट भी हो जाता है। किन्तु विपुलमति केवलज्ञान की प्राप्ति तक बना रहता है । ७१ मनःपर्यायज्ञान का विषय १. द्रव्य की दृष्टि से-मन रूप में परिणत पुद्गल द्रव्य (मनोवर्गणा)। २. क्षेत्र की दृष्टि से--मनुष्यक्षेत्र । ६६ (क) सर्वार्थसिद्धि १६ (ख) तत्त्वार्थराजवार्तिक २२६६-७ । ६७ विशेषावश्यक भाष्य ८१४ । ६८ तदनन्तभागे मनःपर्यायस्य । -तत्त्वार्थसूत्र ११२६ । ६६ जनदर्शन डा० मोहनलाल मेहता ७० नन्दीसूत्र सूत्र १८ ७१ विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः । -तत्त्वार्थसूत्र ११२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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