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________________ Angrandu.AMANRAANANANANAanin.nanAAAMAAAAAABAR.M. . आपाप्रवभिआचार्यप्रवर अभिनय श्राआनन्दरग्रन्थश्राआनन्दान्थ५१ २८२ धर्म और दर्शन किये गये हैं । सम्भवतः लौकिक मान्यता के कारण ही इस प्रकार किया गया हो। नन्दीसूत्र के अभिमतानुसार इस भूमिका का सार इस प्रकार है ज्ञान श्रुत अवधि मनःपर्यव आभिनिबोधिक प्रत्यक्ष केवल परोक्ष इन्द्रियप्रत्यक्ष १ श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्ष २ चक्षुरिन्द्रियप्रत्यक्ष ३ घ्राणेन्द्रियप्रत्यक्ष ४ रसनेन्द्रियप्रत्यक्ष ५ स्पर्शनेन्द्रियप्रत्यक्ष नोइन्द्रियप्रत्यक्ष १ अवधि २ मनःपर्यय ३ केवल आभिनिबोधिक थत श्रुतनिःसृत श्रुतनिःसृत अश्रुतनिःसृत अवग्रह, अवाय, धारणा व्यंजनावग्रह अर्थावग्रह औत्पत्तिकी, वैनयिकी कर्मजा पारिणामिकी बुद्धि उपयुक्त तीनों भूमिकाओं का अवलोकन करने से सहज ही परिज्ञात होता है कि प्रथम भूमिका में दार्शनिक पुट नहीं है। इस भूमिका में प्राचीन परम्परा का स्पष्ट निदर्शन है । इसमें पहले ज्ञान के पांच विभाग किये गये हैं। उसमें मतिज्ञान के अवग्रह आदि भेद किये गये हैं। भगवतीसूत्र में भी इस परिपाटी का दर्शन होता है । द्वितीय भूमिका में शुद्ध जैनदृष्टि के साथ दार्शनिक प्रभाव भी है। इसमें ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये विभाग किये हैं। बाद में जैन ताकिकों ने इस विभाग को अपनाया है। इस विभाग के पीछे वैशद्य और अवैशद्य की भूमिका है, वैशद्य का आधार आत्मप्रत्यक्ष है, और अवैशद्य का आधार इन्द्रिय और मनोजन्य ज्ञान है। जैनदर्शन ने प्रत्यक्ष और परोक्ष सम्बन्धी व्याख्या इसी दृष्टि से की है। अन्य दार्शनिकों की प्रत्यक्ष विषयक मान्यता और जैनदर्शन की प्रत्यक्ष विषयक मान्यता में मुख्य अन्तर यह है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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