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________________ - देवेन्द्र मुनि, शास्त्री साहित्यरत्न [प्रबुद्ध चिंतक, अनेक विशिष्ट ग्रन्थों के लेखक] माण कलाक ज्ञानवाद : एक परिशीलन ज्ञान और आत्मा का सम्बन्ध दण्ड और दण्डी के सम्बन्ध से भिन्न है। दण्ड और दण्डी का सम्बन्ध संयोग-सम्बन्ध है। दो पृथक् सिद्ध पदार्थों में ही संयोग-सम्बन्ध हो सकता है । आत्मा और ज्ञान के सम्बन्ध में यह बात नहीं है। इन दोनों का अस्तित्व पृथक् सिद्ध नहीं है। ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है। स्वाभाविक गुण वह कहलाता है जो अपने आश्रयभूत द्रव्य का त्याग नहीं करता। ज्ञान के अभाव में आत्मा की कल्पना नहीं की जा सकती। न्याय और वैशेषिक दर्शन ज्ञान को आगन्तुक गुण मानते हैं, मौलिक नहीं, किन्तु जैनदर्शन का स्पष्ट मन्तव्य है कि ज्ञान आत्मा का मौलिक गुण है। कितने ही स्थलों पर तो आत्मा के अन्य गुणों को गौण कर ज्ञान और आत्मा को एक कह दिया गया है। व्यवहारनय की दृष्टि से ज्ञान और आत्मा में भेद माना गया है पर निश्चयनय की दृष्टि से ज्ञान और आत्मा में किसी भी प्रकार का भेद नहीं है। ज्ञान और आत्मा में तादात्म्य-सम्बन्ध है। ज्ञान आत्मा का निजगुण है, जो निजगुण होता है वह किसी भी समय अपने गुणी द्रव्य से अलग नहीं हो सकता। ज्ञान से आत्मा को भिन्न नहीं किया जा सकता, आत्मा ही ज्ञान है और ज्ञान ही आत्मा है। ज्ञान स्वभावतः स्वपर-प्रकाशक है। वह अन्य वस्तु को जानने के साथ-साथ स्वयं को भी प्रकाशित करता है। ज्ञान अपने आपको कैसे जान सकता है ? ज्ञान स्वयं को स्वयं से जानता है, यह बात शीघ्र समझ में नहीं आती। कोई भी चतुर नट अपने खुद के कन्धों पर चढ़ नहीं सकता, अग्नि स्वयं को नहीं जला सकती, वह दूसरे पदार्थों को ही जलाती है। वैसे ही ज्ञान अन्य को तो जान सकता है किन्तु स्वयं को किस प्रकार जान सकता है ? जैनदर्शन का कथन है कि जिस प्रकार दीपक अपने आपको प्रकाशित करता हुआ परपदार्थों को भी प्रकाशित करता है, उसी प्रकार ज्ञान अपने आपको जानता हुआ परपदार्थों को जानता है। दीपक को देखने के लिए अन्य दीपक की आवश्यकता नहीं रहती है, वैसे ही ज्ञान को जानने के लिए अन्य किसी ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती। ज्ञान दीपक के समान स्व और पर का प्रकाशक माना गया है। सारांश यह है कि आत्मा का स्वरूप समझने के लिए ज्ञान का स्वरूप समझना अनिवार्य, आवश्यक है। आगमसाहित्य में अभेददृष्टि से जब कथन किया है तब कहा कि जो ज्ञान है वह आत्मा बाया या AMSABAJAJANANDANAJAGAGANGARORAPARiseDOMANJARJAINABALAJAANANAAMNAIAJAJARIranAMPATIALAasaisaAANAS आचार्यप्रवअभिनय श्राआनन्दग्रन्थ श्रीआनन्दान्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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