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________________ नयवाद : सिद्धान्त और व्यवहार की तुला पर २७३ केवल स्थान नहीं है । इस नय के अनुसार यथार्थ क्षणिक है । वस्तु का जो रूप विद्यमान है वह वर्तमान क्षण में ही है । इसे हम बौद्धदर्शन के क्षणिकवाद का दूसरा रूप कह सकते हैं । शेष तीन नय को शब्दनय के नाम से अभिहित किया जाता है (५) शब्दनय - इस नय का मत है कि व्यक्ति किसी वस्तु के विषय में किसी विशिष्ट नाम का प्रयोग करता है। यह प्रयोग वस्तुतः व्यक्ति के मन में निहित वस्तुविशिष्ट के गुण, क्रिया आदि से सम्बन्धित होने के कारण ही होता है । प्रत्येक नाम अपने एक विशिष्ट अर्थ का संवाहक होता है । इसीलिए विशिष्ट नाम से विशिष्ट गुण-क्रिया वाली वस्तु का बोध व्यक्ति को सम्भव होता है । अतः यह निष्कर्ष निकलता है कि पद तथा अर्थ में विशिष्ट सम्बन्ध होता है जो कि सापेक्ष सिद्धान्त पर आधारित है । (६) समभिरूढनय - यह नय पदों में उनके धात्वर्थ के आधार पर भेद स्थापना करता है । यह नय शब्द-नय का विनियोग या प्रयोग है । (७) एवंभूतनय -- यह समभिरूढनय का विशिष्ट रूप है । किसी वस्तु के नानात्मक पक्षों में, उसकी श्रेणी - विभाजन में तथा उसकी अभिव्यक्ति में केवल एक ही पद के धात्वर्थ से यह नय सूचित होता है । यह नय पद के वर्तमान स्वरूप को व्यवहृत करने वाला समयोचित अर्थ है किन्तु उसी पदार्थ विशेष को भिन्न परिस्थिति में भिन्न रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है । उपरि वर्णित प्रत्येक नय अथवा दृष्टिकोण विविध प्रकारों में से, जिनसे पदार्थ का ज्ञान किया जा सकता है, केवल एक ही प्रकार को प्रस्तुत करता है। यदि किसी एक दृष्टिकोण को व्यक्ति भ्रमवशात् सम्पूर्ण ज्ञान समझ ले तो यह ज्ञान नयाभास की कोटि में आ जायेगा । तत्वों के स्वरूप विवेचनार्थ नय के दो अन्य भेद भी दार्शनिकों द्वारा मान्य हैं (१) निश्चयनय ( २ ) व्यवहारनय निश्चयनय के माध्यम से तत्वों के वास्तविक स्वरूप तथा उनमें निहित सभी गुणों का निर्धारण होता है । जबकि व्यवहारिक नय के द्वारा तत्वों की सांसारिक उपादेयता पर विचार किया जाता है । " नय" के इसी भेद के कारण इसके सम्बन्ध में प्रचलित भ्रान्तियों का खण्डन सम्भव हो सका है। परिवर्तनशील युग में "नय" का व्यवहारिक रूप नये युग के नये मूल्यों का संवाहक बन सकता है या नहीं यह विचारणीय प्रश्न है । इस सन्दर्भ में आज के वातावरण तथा "नय" का व्यवहारिक परिवर्तित रूप का क्रमशः विवेचन करना न्यायसंगत होगा । आज का मानव जिस भौतिकता के उच्चतम शिखर पर पहुँच गया है वहाँ उसकी समस्त धार्मिक मान्यताओं के समक्ष प्रश्नवाचक चिह्न लग गया है। भौतिकवादी संत्रासयुग में समाज के ७ (अ) भगवती सूत्र, श० १८, उ०६ (ब) दिट्ठीय दो णया खलु ववहारो निच्छओ चेव । - आवश्यक निर्युक्ति ५१५ ( आचार्य भद्रबाहु ) ( स ) " ववहारणयो भासदि जीवो देहो य हवदि खलु इक्को । ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदापि एकट्ठो ॥ Jain Education International - समयसार २७ तथा समयसार ८वीं गाथा दृष्टव्य श्री आनन्द अन्थ श्री आनन्द For Private & Personal Use Only Jo 350 גווארט www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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