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________________ आचार्य प्रव38 श्री अनिन्दा T फ्र अभिनंदन आआवेदन २२२ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि: व्यक्तित्व एवं कृतित्व तथा विषयवासनाओं के प्रवाह में वह जाते हैं। अतः संत उन्हें सावधान करने, जागरुक रखने, सचेत करते हुए इन्द्रियों और मन को वश में करने का उपाय बताते हैं। यथा-स्वाध्याययोगैश्चरणं क्रियासु व्यापारर्द्वादश भावनाभिः । सुधीस्त्रियोगी सदसत्प्रवृत्ति:फलोपयोश्च मनोनिरुन्ध्यात् ॥ फ्र अर्थात् स्वाध्याय योग में मन को लगाकर, क्रियाओं में संलग्न करके, अनित्यता, अशरणता आदि बारह भावनाओं में जोड़कर और शुभ तथा अशुभ कर्मों के फल के चिन्तन में लगाकर बुद्धिमान पुरुष मन का निरोध करने का प्रयत्न करे क्योंकि मन का स्वभाव प्रतिफल किसी-न-किसी प्रकार का चिंतन करना है । अतः उसे स्वाध्याय आदि प्रशस्त क्रियाओं में संलग्न करना चाहिए। अगर वह इन शुभ क्रियाओं में लगा रहेगा तो उसे विषय वासनाओं की ओर जाने का अवकाश ही नहीं मिल पायेगा और धीरे-धीरे वह सब जायेगा तो विषयों की ओर से विरक्त होकर आत्मा में स्थिर होगा। स शिक्षा मन के निग्रह करने के साधनों और जीव की स्थिति को आप अच्छी तरह समझ गये हैं। कयाय इन्द्रियों के विषय आदि के वशवर्ती होकर जीव किस प्रकार अनन्त काल से विभिन्न योनियों में जन्म लेता चला आ रहा है तथा इस महायात्रा में उसे बड़ी कठिनाइयों से मनुष्यजन्म रूपी अत्यन्त सुन्दर और सुविधाजनक पड़ाव मिला है। लेकिन यहाँ भी आकर आकर्षण और मोह में फँसकर प्रमादमयी निद्रा में सो रहा है । वह भूल गया है कि अभी मेरी यात्रा का अंत नहीं हुआ है । अभी मेरा लक्ष्यस्थान दूर है । भोले मुसाफिर को यह भी ज्ञान नहीं कि अगर मेरी निद्रा का लाभ उठाकर ठगों ने यह वन चुरा लिया तो मैं किस प्रकार अपनी यात्रा सम्पन्न करूँगा तथा किस पूँजी के बल पर आगे बढ़ेगा ? संत पुरुष दुखी होते हैं । वे बार-बार उसे सजग करते हुए जीव की यह दयनीय स्थिति देखकर कहते हैं आमदन ग्रन्थ उठ जाग मुसाफिर भोर भई, Jain Education International अब रंग कहाँ जो सोवत है | जो सोवत है सो खोवत है. जो जागत है सो पावत है । कितनी वात्सल्यपूर्ण और कल्याणकारी चेतावनी है। संत तो स्वयं भी जागरूक रहते हैं और दूसरों को भी जगाते हैं । इस सम्बन्ध में एक छोटा-सा उदाहरण प्रसंगवश बताता हूँ एक तपस्वी सारी रात भगवान का भजन करते रहते थे । यह देखकर एक व्यक्ति ने उनसे पूछा - 'महात्मन् ! आप रात्रि को कुछ समय के लिए सो क्यों नहीं लेते हैं ?' महात्मा बोले - 'भाई ! जिसके नीचे नरक की ज्वाला सुलग रही हो और ऊपर जिसे परमब्रह्म बुला रहा हो, उसे नींद कैसे आ सकती है ?' बंधुओ ! संतों का जीवन ऐसा ही होता हैं। उन्हें जिस प्रकार आत्मकल्याण की चिता रहती है, उसी प्रकार परकल्याण के लिए भी वे चिंतित रहते हैं । उनकी आत्मा संसार के समस्त प्राणियों को आत्मवत् समझती है। इसलिए जो प्राणी उनके जगाने से जाग जायेंगे और उनकी चेतावनी से सावधान हो जायेंगे, वे निश्चय ही अपने धर्मरत्न को सुरक्षित रखते हुए अपनी यात्रा के अंतिम लक्ष्य - मोक्षधाम को प्राप्त कर सकेंगे । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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