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________________ ऊँधै मत बटोही ! २१७ माता कर लेना कितनी कठिन और बड़ी बात है। इसीलिए वैदिक ऋषियों ने भी कहा है---मानव से बढ़कर विश्व में कोई श्रेष्ठ प्राणी नहीं है-- 'न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किचित्।' जिन जीवों को यह मानव तन मिला है, वे बड़े पुण्यशाली हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। क्योंकि यह जीवन अनमोल है। कोई भी व्यक्ति लाखों करोड़ों रुपये देकर अथवा चक्रवर्ती अपने छह खंड का राज्य और अपना सर्वस्व देकर भी इस मानवजीवन को मोल नहीं ले सकता है।। आध्यात्मिक दृष्टि से जब हम विचार करते हैं तथा वीतराग प्रभु के वचनों पर ध्यान देते हैं तो हमें मालूम पड़ता है कि चरम-सीमा तक आध्यात्मिक विकास केवल मनुष्य ही कर सकता है । यद्यपि देवताओं को मनुष्य की अपेक्षा सांसारिक सुख अधिक प्राप्त होते हैं, किन्तु आत्म-साधना और सिद्धि का जब सवाल आता है तो वे पीछे रह जाते हैं। देवता अधिक-से-अधिक प्रथम चार गुणस्थान प्राप्त कर सकते हैं किन्तु आत्मा की अनंतशक्ति का उपयोग करने में समर्थ मानव चौदह गुणस्थानों को पार कर परमात्मपद पा लेता है। इसीलिए पुण्यशील पुरुष अनेकानेक पुण्यों के फलस्वरूप पाये हुए मानवजीवन को निरर्थक नहीं जाने देते हैं। उनका विश्वास होता है कि अगर पूर्वकृत पुण्य को इसी जीवन में भोगकर समाप्त कर दिया और नवीन पुण्य तथा धर्म का संचय नहीं किया तो अनन्त काल तक उनकी आत्मा को पुनः संसारभ्रमण करना पड़ेगा तथा नरक, निगोद तथा तिर्यंचगति की दुस्सह और भीषण यातनायें भुगतनी पड़ेंगी । अगर मानव जीवन रूपी यह अवसर एक बार हाथ से चला गया तो उसका फिर से प्राप्त करना कठिन ही नहीं, वरन् असम्भव हो जायेगा। मानव का कर्तव्य मान लो कि यह मनुष्य शरीर मिल भी गया, लेकिन मानव के अनुकूल प्रवृत्ति नहीं करता, मानवता का समादर नहीं करता, निःस्वार्थ भाव से दूसरों की भलाई नहीं करता, वह मनुष्य के रूप में पशु है। यदि मानव आकृति से जन है तो उसे सज्जन या महाजन बनने की कोशिश करना चाहिए, किन्तु दुर्जन बनने की कोशिश नहीं करना चाहिए। उसे ऊपर चढ़ते रहना चाहिए, वरना नीचे गिर जायेगा। जीवन का वैभव भौतिक धन-सम्पत्ति नहीं है, वरन् मानव के अपने सद्गुण हैं । समता, सेवा, सहिष्णुता और कर्तव्यपरायणता आदि ही मानव का वास्तविक सौन्दर्य है और इस वास्तविक सौन्दर्य को प्राप्त करना ही मानव जीवन का कर्तव्य है। लेकिन जो इस मानव शरीर को पाकर भी इसको वैसे ही गंवा देते हैं, अपनी आत्मा का कल्याण नहीं करते, उससे बड़ा मूर्ख संसार में दूसरा कोई नहीं हो सकता है और नाना प्रकार की आधि-व्याधियों से पीड़ित होकर अत्यन्त दुखी होता रहता है। __ अतएव इस मानवजीवन को सफल बनाने के लिए बाह्य संयोगों से उदासीन होकर आत्म-साधना में लीन हो जाये । आत्मा की उपलब्धि ही मानवजीवन का सार है, कार्य है और इसी में कृतकृत्यता है। कहा भी है धर्मार्थकाममोक्षाणाम् मूलमुक्तं कलेवरम् । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का साधन यह मनुष्य शरीर है। जो परिश्रमी और पुरुषार्थी होते हैं, वे मनुष्य शरीर का सदुपयोग करते हैं। सिद्धि के लिए श्रमशील बनो यह ठीक है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन सभी का साधन यह मानव शरीर है। लेकिन आप यह विचार कर निश्चिन्त न हो जाइये कि मानव शरीर पा लिया तो अब ये सब सहज ही प्राप्त हो जायेंगे। मोक्षप्राप्ति मानव शरीर से ही सम्भव है, परन्तु इसके लिए प्रयत्न करना पड़ता है। त्याग, तपस्या और साधना करनी पड़ती है तब मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता आचार्यप्रव03 आचार्यप्रवर आभा श्रादग्रन्थश्राआन श्रीआईन् wwwwwwwwwaranwurrendentaronm Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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