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________________ aun.. 4 ...+ 14. .. d . .... . [धर्म का स्वरूप, धर्म का महिमा, धर्म से हा सुख, करे धर्म छुटे कर्म, मिले शिव-शर्म-श्रादि मूक्तियों का अध्यात्मपरक विश्लेषण १६ सुख का साधन-धर्म जीवन के लिये धर्म मार्गदर्शक दीपक के समान है। धर्म-दीप की सहायता से ही मानव अपने वास्तविक कर्तव्य-पथ पद अग्रसर हो सकता है। जब तक मनुष्य के अन्तःकरण में धर्म की ज्योति नहीं जगती, उसका समस्त आचार-विचार और क्रिया-कलाप निरर्थक सावित होता है तथा वह आत्ममुक्ति के मार्ग पर एक कदम भी नहीं बढ़ पाता। लेकिन दुःख की बात यह है कि आज के युग में धर्म उपेक्षा की वस्तु बन गया है। इसका कारण मानव की धर्म संबन्धी अनभिज्ञता ही है। वे नहीं जानते कि धर्म का सच्चा स्वरूप क्या है ? केवल वाह्य क्रियाकांडों को धर्म समझ लेना तथा उनके कारण विभिन्न धर्मावलम्बियों को आपस में झगड़ते देखकर धर्म के नाम का ही त्याग कर देना, उनकी बड़ी भारी भूल है । हमारी नई पीढ़ी के युवकों का यही हाल है। वे स्वयं तो धर्म को समझने तथा उसके सच्चे स्वरूप को जानने का प्रयत्न नहीं करते, केवल दूर से ही धर्म के नाम पर होने वाले मत-भेदों और कलहों को देखते हैं तथा 'धर्म' नाम का त्याग करने में ही अपनी बुद्धिमानी मानते हैं। ऐसे नादान प्राणियों को ही धर्म का सच्चा स्वरूप संक्षेप में बताने का प्रयास किया जा रहा है। मंगलमय-धर्म जैन शास्त्र धर्म का जो स्वरूप प्रतिपादित करते हैं, वह इतना सरल, उदार, सार्व और सुन्दर है कि प्रत्येक मानव उसे सहज भाव से ग्रहण कर सकता है । धर्म का वह स्वरूप प्रत्येक देश, प्रत्येक जाति, प्रत्येक समाज और प्रत्येक मानव के लिये समान रूप से उपादेय है। दशवकालिक सूत्र के आरंभ में ही कहा गया है धम्मो मंगलमुक्किळं अहिंसा संजमो तवो। देवावि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो॥ जो उत्कृष्ट मंगलमय है, वही धर्म है। मंगलमय का अर्थ है-जो आत्मा की बुराइयों और पापों को नष्ट करे तथा सुख एवं शांति प्रदान करे । धर्म वही करता है और इसीलिये वह मंगलमय है। दुसरे शब्दों में जो प्राणिमात्र के लिये मंगलमय है, उसी का नाम धर्म है। आगे कहा जा सकता है कि ऐसे कौन से विधि-विधान हैं जिनके द्वारा सब का मंगल हो सकता है? शास्त्र में इसी का उत्तर है-अहिंसा, संयम और तप की आराधना करने से मानव का मंगल होता है तथा उसकी आत्मा का कल्याण हो सकता है । इतना नहीं, ऐसे धर्म को धारण करनेवाले को देवता भी नमस्कार करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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