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________________ आचार्यप्रaaआभाचार्यप्रवभिः श्रीआनन्दयश्रीआनन्देन्या आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व 'सर्व वस्तुभयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ।' इसलिये आत्मकल्याण के अभिलाषी व्यक्ति को सर्वप्रथम अपनी कामनाओं पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये तथा अनन्त बलशाली आत्मा को दीन, हीन और निर्बल बना देने वाली समस्त आकांक्षाओं का त्याग करके सच्चा विरक्तिभाव अपनाना चाहिये। जो ऐसा करने में समर्थ हो जाता है, वही सच्चा मुनि तथा वीर कहलाने का अधिकारी होता है । बौद्धग्रन्थ के प्रसिद्ध ग्रन्थ धम्मपद में कहा है ये सं संबोधि अंगेसु सम्माचित सुभावितं । आदानपाट निस्संगे अनुपादान ये रता । खीणासवा जुतीमन्नो ते लोके परि निता। अर्थात्-इस संसार में वही मुक्त है जिन्होंने ज्ञान के सब अंगों से चित्त को सुव्यवस्थित कर रखा है, जो किसी भी वस्तु से लगे-लिपटे नहीं हैं, जो किसी पर मोह नहीं रखते और जिनकी वासना नष्ट हो गई है। वैराग्य का उत्पादक वास्तव में वस्तुस्वरूप का सम्यक् ज्ञान वैराग्य का जनक है । जो मनुष्य संसार के अनित्य और निस्सार स्वरूप का ज्ञान कर लेता है और यह समझ लेता है कि आनन्द जड़पदार्थों में नहीं आत्मा के अन्दर ही छिपा हुआ है तो स्वतः ही उसके हृदय में वैराग्य की निर्झरणी प्रवाहित होती है और सच्चे ज्ञान का अधिकारी बनता है। अन्यथा उसका ज्ञान लोगों को भुलावा देने के अलावा और कुछ नहीं माना जा सकता है। अतएव मेरे बन्धुओ ! हमें अपने ज्ञान का सही उपयोग करना चाहिये, उसकी सहायता से संसार के पदार्थों का और आत्मा के सच्चे स्वरूप का निश्चय करना चाहिये, तत्पश्चात उसे अपने आचरण अर्थात् क्रिया में उतारते हुए अपने मन, वचन और काय इन तीनो योगों पर संयम रखते हुए आत्मसाधना में जुट जाना चाहिये। कोरे ज्ञान से हमारा उद्देश्य कभी भी सिद्ध नहीं हो सकता, जब तक कि उसका उपयोग तीनों योगों को नियंत्रण में करते हुए आचरण को शुद्ध और दृढ़ न बनाया जाये । कहा भी है ज्ञान क्रिया विन मोक्ष मिले नहीं, श्रीजिन आगम मांहि कही है। एक ही चक्र से नाहिं चले रथ, दो बिन कारज होत नहीं है। ज्ञान है पांगुलां अंध क्रिया मिल, दोन कलाकरि राज ग्रही है। कीजे विचार भली विध 'अमृत', श्रीजिनधर्म को सार यही है। अन्त में मुझे केवल यही कहना है कि अगर हम अपने मनुष्यजन्म को सार्थक करना चाहते हैं तथा आत्मा को कर्म बंधनों से मुक्त करना चाहते हैं तो हमें सांसारिक सुख की असारता और संयोगों की अनित्यता पर विचार करते हुए उनके प्रति अपने चित्त में स्थित राग, मोह और आसक्ति को नष्ट करना चाहिये । ऐसा करने पर हमारे हृदय में निरासक्त भाव बढ़ेगा और संसार में रहते हुए भी हम विदेह हो कर रह सकेंगे। NADA Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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