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________________ 3 आयाम श्री आनन्द J फ्र २०२ अभियार्यप्रव आचार्यश्व अन्थ श्री आनन्द आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि व्यक्तित्व एवं कृतित्व : अभिनंदन ग्रन्थ V जब कषायों में आत्मा फंसी रहती है तो कर्मों का दृढ़ बंधन होता है, किन्तु रूपचन्दजी की उपेक्षा करना भी तो सहज नहीं है। माल कमाने में आप कितना प्रयत्न करते हैं ? वे हिसाब और नामस्मरण करने में ? जरा भी नहीं ! दुख की बात है कि आपको यह ख्याल नहीं रहता कि भगवान का स्मरण आत्मा के साथ चलेगा और धन-माल सब यहीं रह जायेगा। किन्तु धनराज जी के समाने आपका वश नहीं चलता रुपया, पैसा, वेत, बाग बगीचा, मोटर, बंगला और अन्य अनेकानेक वस्तुयें आप चाहते हैं। यह सही है कि आप संसारी हैं, आजीविका के बिना आपका काम नहीं चलता किन्तु तनिक ज्ञानचन्दजी की बात भी तो आपको सुनना चाहिये 7 'ज्ञानचन्दजी की बात सुने न चेतनराम, आवे नहीं दयाचन्द्र सदा सुखदाई है ।' ज्ञान की बात चेतन सुनने को तैयार नहीं होता । हमें यह देखना है कि ज्ञान की बात क्या है ? योग्यतानुसार अभावग्रस्त प्राणी की सहायता करनी चाहिये नहीं होती, वह चाहे कितनी भी धर्मक्रियायें क्यों न करे, व्यापार आदि धनार्जन के कार्यों से 'आवे नहीं दयाचन्द्र सदा सुखदाई है - अर्थात् ज्ञान की बात है दिल में दया का होना । प्रत्येक प्राणी के हृदय में दूसरों के दुःख को देखकर करुणा का उदय होना चाहिये तथा उसे अपनी शक्ति और जिस व्यक्ति के हृदय में दया की भावना वे फलदायी नहीं बन पातीं। इसके अलावा मनुष्य को जो लाभ होता है, उसकी अपेक्षा अनेक गुना लाभ दयाभाव से प्रेरित होकर किसी भी प्राणी की सहायता करने से होता है। कहा भी है ब्याजे स्वाद द्विगुणं वित्त व्यवसाये चतुर्गुण' । क्षेत्रे शतगुणं प्रोक्तं पात्रेऽनन्तगुणं भवेत् । ब्याज पर पैसा देने से संभवत: दुगुना हो सकता है, व्यापार में लगाने पर चौगुना और खेत में बीज के रूप में बो देने पर सौगुना भी होता है। ऐसा कहा जाता है । किन्तु अभावग्रस्त और सत्पात्र को दिया हुआ पैसा अनन्त गुना फल प्रदान करता है । 九 दया धर्म के विषय में यही बात ज्ञानचन्द जी अर्थात् 'ज्ञान' 'चेतन' को समझाता है किन्तु चेतन अर्थात् आत्मा उसे सुनने के लिये तैयार नहीं होती। फिर जनम जनम में मुख-प्रदान करने वाली दया कैसे आये ? और पद्य के चतुर्थ चरण में कवि श्री तिलोकऋषि जी महाराज कहते हैं Jain Education International कहत है तिलोरिख मनाई लेहि नेमचन्द्र, नही तो कालूराम आये विपति सवाई है। भाई ! एक बात मेरी मानो ! मनाई लेहि नेमचन्द ! अर्थात् नियम व्रत, स्वाग, प्रत्याख्यान आदि कुछ तो करो जिससे आत्मा का कल्याण हो सके । बंधुओ ! आपसे जब त्याग नियम लेने के लिये कहा जाता है तो आप कह देते हैं 'महाराज ! बनता नहीं' पर याद रखो एक दिन कालूरामजी (काल) आने वाले हैं। वे किसी को भी छोड़ने वाले नहीं हैं । चाहे कोई डाक्टर हो, वकील हो, इन्जीनियर हो । किसी भी साहब का कालचन्दजी को त्याग नहीं है । सच्चा हितैषी धर्म । प्रत्येक मानव को एक दिन इस संसार को छोड़कर जाना पड़ेगा। यहाँ की एक भी वस्तु उसके साथ जाने वाली नहीं है। साथ जायेगा तो केवल शुभ और अशुभ कर्मों का गट्टर ही अशुभ कर्मों की यह गठरी विषय कषायों की तीव्रता से ही अधिकाधिक भारी होती है और आत्मा को पुनः पुनः जन्ममरण के लिये बाध्य करती है । ये ही वे कारण हैं जिनके कारण मनुष्य मुक्ति की आकांक्षा रखते हुए भी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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