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________________ कषाय संसार वृद्धि का हेतु है । अकषाय मुक्ति का । कषाय का स्वरूप और उससे मुक्त होने की विधि ।] १४ कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव Le अनादि काल से मानव के मन में अपने अभ्युदय की अमर आकांक्षा रही है, किंतु दुःख है कि कोटि प्रयत्न करने पर भी वह पूर्ण नहीं हो पाई। क्यों नहीं हो पाई और उसके मूल में बाधक कारण कौन-कौन से हैं ? यही आज हमें जानना है और आत्मा को अवनति की ओर अग्रसर करने वाले उन घातक कारणों को समूल नष्ट करने का प्रयास प्रारंभ करना है । कषाय चतुष्टय आत्मा को स्वभाव दशा से विभाव दशा में ले जाने वाले तथा जन्म-मरण की कठोर शृंखलाओं में जकड़ने वाले चार कषाय हैं--क्रोध, मान, माया एवं लोभ । ये ही चतुष्कषाय आत्मा के सद्गुणों का नाश करते हैं और ऊर्ध्वगामी होने के बजाय अधोगामी बना देते हैं। कहा भी है कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणयनासणो। माया मित्ताणि नासेइ लोभी सब्ब बिणासणो ॥२ __ अर्थात् क्रोध आत्मा के प्रीति गुण का नाश करता है, मान विनय गुण का, माया मैत्री का तथा लोभ उसकी समस्त विशेषताओं को नष्ट कर देता है। इस प्रकार हमारी आत्मा जो जीवराज है, सत्-चित्-आनंदमय है, निर्विकार और निष्कलंक है तथा अत्यन्त शक्तिशालिनी है, इन कषायों के फेर में पड़कर अपनी दिव्यता को खो बैठती है तथा कर्मों के आवरणों से वेष्टित होकर जन्म-जन्मान्तरों तक नाना योनियों में परिभ्रमण करती रहती है, इसलिये कर्मबंधन के प्रधान कारण तथा दुःख व अशांति के बीजरूप कषायों से प्रत्येक मानव को बचने का प्रयत्न करना अनिवार्य है । दशवकालिक सूत्र में भी यही निर्देश किया गया है वमे चत्तारि दोसाई इच्छन्तो हियमप्पणो।' इसका अर्थ है-अपना हित चाहने वाला प्राणी इन चारों दोषों का वपन करता है अर्थात् इन्हें त्याग देता है। जब तक कषाय मन्द नहीं होते तब तक सुख एवं शांति प्राप्त करने के समस्त बाह्य प्रयत्न व्यर्थ हो जाते हैं। जिस प्रकार शीतल जल के चार छींटे दूध के उफान को नहीं रोक पाते, उसी प्रकार पूजा पाठ, भजन व प्रवचन-श्रवण आदि बाह्य क्रियायें कषयों की वह्नि से झुलसती हुई आत्मा को शीतलता प्रदान नहीं कर सकतीं । कपायों की करामात का पूज्यपाद श्री तिलोकऋषि जी महाराज ने अपने एक पद्य में अत्यन्त रुचिकर ढंग से वर्णन किया है १ कषाय की व्याख्या भी यही की गई है। २ दशवकालिक सूत्र SUNDAMuskuraaduaadOAMUIDAVANAGARMINAweaimurereadiAMANABRAranimuanawraneASHARMILAABAIKAILAPAN Forward Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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