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________________ संगति कीजे साधु की १८६ DIRE जया ध्यान में रखने की बात है कि मनुष्य किताबी ज्ञान कितना भी हासिल कर ले, बड़े-बड़े ग्रन्थों को कंठस्थ करके विद्वानों की श्रेणी में अपने आपको समझने लग जाये, फिर भी वह ज्ञानी नहीं कहला सकता क्योंकि उसका ज्ञान तर्क-वितर्क तथा वाद-विवाद करके लोगों को प्रभावित करने तथा भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त करने के काम ही आता है। वह ज्ञान उसकी आत्मा को कर्ममुक्त करने में सहायक नहीं बनता। सच्चा ज्ञान वही है जो आत्मा को शुद्धि की ओर बढ़ाता है तथा शनैः-शनैः उसे भवभ्रमण से छुटकारा दिलाता है और ऐसा ज्ञान जिसे हम सम्यक् ज्ञान कहते हैं, संतजनों के संपर्क से ही हासिल हो सकता है । बंधुओ ! इसीलिये कहा गया है कि सत्संगति करने से ज्ञान की वृद्धि होती है तथा सन्मार्ग प्राप्त होता है । संतजनों की संगति करने से सदा लाभ ही होता है। हानि की संभावना नहीं रहती। भले ही व्यक्ति ऐसी आत्माओं की संगति अधिक न कर सके, फिर भी उसे जहां तक बने प्रयत्न करना चाहिए। कभी-कभी तो क्षण भर का सत्संग भी जीवन को ऐसा मोड़ दे देता है कि जीवन भर की कमाई व्यक्ति को इस अल्पकाल में ही हो जाती है। इसलिए आपको सदा यह ध्यान रखना चाहिए कि अल्पकाल के लिए ही सही पर संत-समागम अवश्य करें । कौन जानता है कि किस क्षण मन की गति करवट बदले और गुरु का एक शब्द भी आपके जीवन को सार्थक बना दे। वस्तुतः संतजीवन अत्यन्त दुष्कर, किन्तु महामहिम भी होता है । इसलिए व्यक्ति को उनके जीवन से ज्ञान पाने के लिए उनकी संगति करना चाहिए तथा उनके सदुपदेश एवं आचरण से अपने आत्मकल्याण का मार्ग पाना चाहिए। सत्संगति से ही ज्ञानप्राप्ति संभव है और ज्ञानप्राप्ति से कर्मनाश करते हुए मुक्ति । अतः जिसे मुक्ति की अभिलाषा है, उसे सत्संगति का महत्व समझकर उसके द्वारा अपनी ज्ञानवृद्धि करना चाहिए । प्रानन्द-वचनामृत [ आत्मन् ! तुम कीड़े बनकर भोग-विलास के कीचड़ में मत धसो । शुकर बनकर विषयों की विष्टा से प्रेम मत करो। किंतु मधुकर बनकर सद्गुणों की सौरभ (पराग) का आस्वाद करो, गरुड बनकर अनन्त ज्ञान-दर्शन के आकाश में विहार करो। । सूख का स्रोत आत्मा के भीतर है, वह मन के पर्वतों से शांति का निर्झर बनकर बहता है। सुख न देह में है, न गेह में, न धन में, न परिजन में, न इन्द्रिय-विषयों में और न अन्यत्र कहीं ! वह तो आत्म-गुणों के भीतर से ही प्रकट होता है। 10 कुम्भार मिट्टी के गोल-मटोल पिण्ड को सुन्दर घट के रूप में बदल देता है, मूर्तिकार टेढ़े-मेढ़े पत्थर को मनोहर मूर्ति का आकार प्रदान कर देता है। यह एक कला है, इसी प्रकार साधक भी विषयों से कलुषित बेडोल जीवन को सुन्दर और रमणीय जीवन में बदल सकता है, क्योंकि उसके पास जीवन की कला है-संयम। आचार्यप्रवभिनयआचार्यप्रवर अभि श्रीआनन्दान्थ५ श्रीआनन्द AAAAAAAKimatuarABARJAATBAruwaunuwaamweaderssabsANASANASAL ADAALANASALAJANIKARAN --dain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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