________________
श्रीमानन्द अदन आनन्द आमदन
१८४
आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि: व्यक्तित्व एवं कृतित्व
हो सकती है, कर्मबंध के कारण भी निर्जरा के कारण बन जाते हैं । इसका कारण है- पुण्य-पाप क्रिया के 'अनुसार नहीं, किन्तु भाव के अनुसार होते हैं । इसीलिए तो भगवान महावीर ने कहा है-जे आसवा ते परिस्सा | ७
ॐ
ST
雨
जो आश्रव हैं, कर्मबंध के हेतु हैं, वे ही भावना की पवित्रता के कारण परिश्रव - अर्थात् कर्मनिर्जरा के कारण हो जाते हैं। जितने, जो-जो कारण संसारवृद्धि के हैं, भावना बदलने से वे ही सब कारण संसारमुक्ति के हो जाते हैं, यह आचार्य भद्रबाहु का कथन भावना की फल-शक्ति का परिचायक हैं । 5 योगवाशिष्ठ में महर्षि व्यास ने कहा है
अमृत रूप से चिन्तन करने पर विष भी अमृत बन जाता है । शत्रु को बार-बार मित्रदृष्टि से देखने पर शत्रु भी मित्र बन जाता है ।
श्रीमद्भागवत में कहा है
यत्र यत्र मनोदेही धारयेत् सकलं धिया । स्नेहाद् द्वेषाद् भयाद् वापि याति तत्तत्स्वरूपताम् ॥
प्राणी, स्नेह, द्वेष या भय से अपनी भावना को, मन को जहाँ-जहाँ लगता है, वहाँ मन वैसा ही स्नेही, द्वेषी और भयाकुल हो जाता है । अर्थात् स्नेह का चिन्तन करते रहने पर स्नेही, द्वेष की भावना रखने पर द्वेषी और भय की भावना रखने पर भयभीत बन जाता है। वीतराग प्रभु के निकट जातिद्वेष रखने वाले सिंह-बकरी, चूहा -बिल्ली वैर-विद्वेष भूलकर निर्वैर क्यों हो जाते हैं ? इसका कारण हैउनकी वीतराग भावना । उनकी वीतरागता का प्रभाव अन्य प्राणियों की भावना पर भी होता है और उनकी भी भावना बदल जाती है ।
अमृतत्वं विषं याति तदेवामृतवेदनात् । शत्रु मित्रत्वमायाति मित्र संवित्ति वेदनात् ।
मैं बता रहा था कि हम जो कुछ क्रिया करते हैं, उसका फल भावना के अनुसार ही हमें मिलता है । भावना शुद्ध रही तो आधा घंटा में भी महान कर्मनिर्जरा कर सकते हैं, पुण्यों का अक्षय उपार्जन कर सकते हैं ।
संस्कृत में कहावत है-
दुग्धं देयानुसारेण कृषिर्मेघानुसारतः । लाभोद्रव्यानुसारेण पुण्यं भावानुसारतः ॥
गाय-भैंस को जैसी खुराक दी जाती है, उसी के अनुसार वह दूध देती है, जैसा मेघ बरसता है, वैसी ही खेती होती है, दुकान में जैसा जितना माल सामान रखा जाता है उसी के अनुसार लाभ या कमाई हो सकती है, और क्रिया में जैसी भावना होती है, उसी के अनुसार पुण्य होता है। इसलिए जिस कार्य में जैसी भावना रहेगी उसी के अनुरूप फल प्राप्ति होगी । कहा है
७
८
मंत्र में, तीर्थ में, ब्राह्मण के प्रति, देवता, भगवान के प्रति, ज्योतिषी के प्रति, औषधि और गुरु के प्रति जिसकी जैसी भावना होती है, उसे उसी प्रकार की सिद्धि मिलती है । अर्थात्
जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी । जिसकी जैसी भावना रही, वह प्रभु को उसी रूप में देखता है ।
Jain Education International
आचारांग ४/२
ओ नियुक्ति ५२
मंत्र तीर्थे द्विजे देवे दैवज्ञ भेषजे गुरौ । यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org