SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ عرعر عرعر عرعر عرعر عرقع می ها را با معما هافنغتعظیم و تحقیقرقره لعمل عرعر عرعر عرعر N Sun ONOM ION: 262 AranMantrarawatiwwewiwwwmivinemamalivinirmanand १८२ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व न देवो विद्यते काष्ठे न पाषणे न मण्मये । भावेषु विद्यते देव स्तस्माद् भावो हि कारणम् । देवता, भगवान न लकड़ी की मूर्ति में है, न सोने और पत्थर आदि की मूति में है, भगवान तो सिर्फ भाव में है इसलिए भाव ही मुख्य कारण है। कबीरदास ने कहा है मुझको कहाँ ढूँढ़े बंदे ! मैं तो तेरे पास में। ना मैं मक्का, ना मैं काशी, ना काबे कैलाश में । मैं तो हूँ विश्वास में ! भगवान कहते हैं-मूर्ख भक्त ! तू मुझे कहाँ ढूंढ़ रहा है ! मैं न तो मक्का-मदीना में हूँ, न येरुसलम (ईसाई तीर्थ) में, न काशी में, न कैलाश में, न शिखर जी और न गिरनार में, मैं कहीं बाहर में या पर्वत आदि तीर्थों में नहीं रहता हूँ, मैं तो तेरे पास में ही हूँ, और तेरे विश्वास में ही हूँ। जहाँ, जिस जगह तेरा विश्वास जम गया, जहाँ तेरी भावना जग गई, उसी स्थान में मैं प्रकट हो जाता हूँ । मेरा निवास मुर्ति या तीर्थ में नहीं, भाव में है, दिल में है। पद्मपुराण में एक प्रसंग है कि नारदजी ने विष्णु से पूछा-भगवन् ! आपका निवासस्थान कहाँ है ? विष्णु जी ने उत्तर दिया--- नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च । मद् भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ! न मैं वैकुण्ठ में रहता हूँ, न शेष-शय्या पर और न योगियों के हृदय में, किन्तु मेरे भक्त जहाँ भावना के साथ मुझे पुकारते हैं, मैं वहीं उपस्थित रहता हूँ । उर्दू के एक शायर ने कहा है दिल में तसवीर है यार की गर्दन झुकाई कि देख ले । तेरे भगवान की तसवीर तेरे मन में, भाव में ही है, बस यों गर्दन झकाई अर्थात् अन्तर में झांका कि वहीं भगवान के दर्शन हो जायेंगे । तो इस समूचे विवेचन का अर्थ है कि भगवान, धर्म या साधना का अस्तित्व किसी बाह्य वस्तु में नहीं अपने अन्तर में है और वह अन्तर की शक्ति और कुछ नहीं, सिर्फ भाव है। भाव के बिना सब द्रव्य है दान, शील, तप, स्वाध्याय, पूजा, आदि जितने भी धार्मिक कृत्य हैं, उन सब का फल तभी होता है, जब इनमें भाव हो, अर्थात् इनके साथ भावना का योग हो। भावशून्य क्रिया कभी फलप्रदायिनी नहीं हो सकती। आचार्य सिद्धसेन ने पार्श्वनाथ भगवान की स्तुति करते हुए कहा है आणितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या। जातोऽस्मि तेन जन बांधव ! दुःखपात्रं, यस्मात् क्रिया प्रतिफलन्ति न भावशून्याः । हे प्रभो ! अनेक बार आपके दिव्य वचन सुनकर भी, आपकी पूजा करके भी, और क्या, आपके देव दुर्लभ दर्शन पाकर भी भक्तिपूर्वक उनमें मन नहीं लगाया। इसी कारण तो जन्म-जन्म में भटकते हुए दुःख पा रहा हूँ, क्योंकि भावशून्य क्रिया कभी फलदायी थोड़े ही होती है ? ४ चाणक्यनीति ८।११ ५ कल्याणमन्दिर स्तोत्र ३८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy