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________________ उपदेश-श्रवण का पात्र १४५ VIRUARY अर्थात् मनुष्य मगर के मुख से बल पूर्वक मणि निकाल सकता है और भयंकर लहरें उठती हों ऐसे दुस्तर समुद्र को भी पार कर सकता है, क्रोधित सर्प को पुष्प की भांति सिर पर धारण कर सकता है, परन्तु हठी मूखों के चित्त को नहीं मना सकता। ऐसे व्यक्ति सन्तों की नसीहत और उपदेशों से कोई लाभ नहीं उठा पाते, कोई भी शिक्षा उनके गले नहीं उतरती। ऐसी स्थिति में गुरु क्या कर सकता है ? एक शिक्षक ब्लैकबोर्ड पर गणित का सवाल लिखता है और नाना प्रकार से उसे हल करने की विधि बताता है। अध्ययन में रुचि रखने वाले छात्र उन विधियों को भली-भाँति समझ लेते हैं और याद कर लेते हैं, किन्तु जड़-बुद्धि और दुष्ट प्रकृति वाला छात्र उस ओर देखे ही नहीं और अपना मन उस ओर न लगाये तो शिक्षक क्या कर सकता है ? इसी प्रकार हम उपदेश देते हैं पर आप उसे अमल में नहीं लाते तो यह आपका दोष है । हमें भी हमारे गुरु महाराज ने संयम पथ पर चलने के लिए अनेक प्रकार की उत्तम शिक्षायें दी थीं। यह उनका काम था, पर अब हमारा काम है, उनके बताये हुए मार्ग पर चलना । हम अगर सही मार्ग पर न चलें तो दोष हमारा ही है। महापुरुषों की भावना लोग भूल जाते हैं कि सन्त महात्मा जो उपदेश देते हैं, उसमें उनका कोई स्वार्थ सिद्ध नहीं होता। वे अन्य प्राणियों की आत्मा को उन्नत बनाने का प्रयत्न करते हैं और करुणा की भावना से संसार चक्र में फंसे हुए जीव को मुक्ति का मार्ग बताते हैं। वस्तुतः अगर व्यक्ति इस संसार के बाह्य और नश्वर पदार्थों में आसक्त रहेगा, इन्हीं की प्राप्ति और भोग की समस्याओं में उलझा रहेगा तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूपी आन्तरिक गुणों की ओर ध्यान नहीं दे पायेगा और जब इनके विकास की ओर अपना लक्ष्य नहीं देगा, कभी अपनी आत्मा में नहीं झाँकेगा तो अपने मोक्ष-प्राप्ति के उद्देश्य को कैसे पा सकेगा? जो प्राणी इस बात को समझ लेते हैं, वे अपने अमूल्य जीवन का एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाने देते । सन्तों का उपदेश तो दूर, किसी साधारण-सी घटना से ही अपने जीवन की गलत दिशा को सही दिशा में ले जाते हैं। भव्य जीवन को झाँकी भव्य प्राणियों का जीवन ऐसा ही होता है। निकट भविष्य में ही जिनकी आत्मा संसार मुक्त होने वाली होती है, वे किसी साधारण संयोग से ही चेत जाते हैं और समस्त सांसारिक सुखों को तिलांजलि देकर साधनों में जुट जाते हैं और ऐसा होने पर ही आत्म-कल्याण हो सकता है। जब तक जल में हुए प्राणी की छटपटाहट के समान जीव को इस संसार-सागर से उबरने की छटपटाहट नहीं होती, तब तक वह आत्म-मुक्ति के प्रयत्न में संलग्न नहीं हो सकता। कहा भी है धन धान तजे गृह छोरि भजे जिनराज के नाम लग्यो मन है । शुद्ध सम्यक ज्ञान विराग सधे न करे परमाद इको छिन है। निशवासर दुक्कर धारत कष्ट अनित्य लखे मनुजा तन है। जिन आन अमीरिख शीश धरे शिव पामिवे को यह साधन है। सर्प जिस प्रकार अपनी केंचुली का त्याग करके पुनः पीछे फिरकर नहीं देखता और वहां से सरपट भाग जाता है, इसी प्रकार जब प्राणी धन-धान्य-पूर्ण गृह एवं सांसारिक सम्बन्धियों के प्रति मोह ममता को त्यागकर बिना उनकी ओर मुड़कर देखे भागकर भगवान से लौ लगा लेता है तभी वह साधना के कठोर पथ पर चल सकता है । जो जीव सम्यज्ञान की प्राप्ति कर लेते हैं और वैराग्य में रमण करने लगते हैं, वे एक क्षण का भी प्रमाद किये बिना शरीर को अनित्य मानकर दुष्कर तपादि करते हुए इसका पूरा लाभ उठाते हैं। उनकी आत्मा कभी भी डिगती नहीं, यहाँ तक कि धर्म के लिए वे समय आने पर प्राणों का त्याग करने से भी RAN माया GREE n ews RAMMARRIMARUNawadamaANOARMADAMJANuedmaamannamBABAJANANAMAJHIMJAAAAAAMKARANAJARAMMAamana सायाप्रवाल भिसाचार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्दमग्रन्थ श्रीआनन्द अन्य2 meromerror wMFAwrv Jain.Educati For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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