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________________ inde amruRANAMAAJAJJANASALAAAAAJANABAJAJARJANAJATADASANA wwwAYANVI A १३६ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व __ सिद्धि प्राप्ति के लिए अनेक जन्मों तक प्रयत्न करना पड़ सकता है तथा घोर-से-घोर उपसर्ग सहन करने का अवसर आ सकता है। इस अनुभवसिद्ध सुभाषित को आचार्यसम्राट ने इस प्रकार सथित किया है तलाशे-यार में जो ठोकरें खाया नहीं करते । वे अपनी मंजिले मकसूद को पाया नहीं करते । -आनन्द प्रवचन, भाग १, पृ० ११३ प्रवचनों की यह दशमी विशेषता है। ग्यारहवीं विशेषता है व्यंग्यशैली का प्रयोग । यों तो आचार्यप्रवर ने प्रसाद शैली, व्यास शैली, समास शैली, विवेचन शैली, तरंग शैली आदि विभिन्न शैलियों को विषय प्रतिपादन के समय अपनाया है, लेकिन आपकी व्यंग्य शैली विशेषतः उल्लेख्य है। इसके द्वारा आपने श्रोताओं एवं पाठकों के दिल को अनेक बार झकझोरा है । व्यंग्य शैली---जैसाकि नाम से स्पष्ट है, इस शैली में व्यंग्य और चुटकीलेपन की प्रमुखता रहती है । शब्द बाहर से सुन्दर और सरल मालूम पड़ते हैं। उसका अभिधात्मक अर्थ भले ही कुछ न हो, पर व्यंजनात्मक अर्थ बड़ा गहरा और नुकीला होता है, वह सम्बन्धित व्यक्ति को तिलमिला देने वाला होता है । बाह्य अर्थ जो निकलता है वह अपेक्षाकृत अर्थ नहीं है, उसका व्यंजनात्मक अर्थ ही सही अर्थ होता है । अर्थ की पैनी धार हृदय को बेधने वाली होती है। विनय और बड़ाई के लिए प्रयुक्त शब्दव्यंग्य निन्दा का अर्थ ध्वनित करते हैं। उसके सही अर्थ को पाने के लिए गहराई में उतरना पड़ता है। तीखापन, श्लेष और परिहास इसके तीन रूप माने गए हैं। कठोर चुटकीले शब्दों का प्रयोग दुसरे के सिद्धान्तों-विश्वासों पर करारी चोट, मीठे और भले पर द्विअर्थक शब्दों का प्रयोग इसकी विशेषताएँ हैं। मीठी गुदगुदी सर्वत्र मिलेगी। इसके माध्यम से बड़ी-से-बड़ी बात कह दी जाती है। दूसरा व्यक्ति उसका स्पष्ट विरोध भी नहीं कर सकता । इस व्यंग्य को केवल सम्बन्धित व्यक्ति ही समझ सकता है। मनोरंजन के तत्त्वों का समावेश रहता है। बुद्धि और हृदय दोनों का प्राधान्य रहता है।'' आचार्य श्री के निम्नस्थ प्रवचन-उद्धरण इस शैली के अन्तर्गत उल्लेख्य हैं (क) पास तेरे है कोई दुखिया, तूने मौज उड़ाई क्या ? भूखा-प्यासा पड़ा पड़ोसी, तूने रोटी खाई क्या ? इस पद्य में स्वार्थी और विलासी व्यक्ति की भर्त्सना करते हुए कहा है-अरे प्राणी ! अगर तेरे समीप कोई अभावग्रस्त या रोग-पीडित दुःखी व्यक्ति घोर कष्टों में से गुजर रहा है और तूने उसकी ओर ध्यान न देकर केवल अपनी ही मौज-शोक का ध्यान रखा है, अपने भोग-विलास के साधनों को जुटाने और उन्हें भोगने में ही लगा रहा है तो तूने यह जीवन पाकर क्या किया? कुछ भी नहीं। तेरा पड़ौसी तन पर वस्त्र और पेट के लिए अन्न नहीं जुटा सका किन्तु तु प्रतिदिन नाना प्रकार के मधुर पकवान उदरस्थ करता रहा तो क्या हुआ? क्या इससे तेरी कीर्ति बढ़ गई ? नहीं, अपना पेट तो पशु भी भर लेता है। तूने उससे अधिक क्या किया? अगाध ज्ञान और बुद्धि का धनी होकर तथा हृदय में अनेकों भावनाओं का भंडार रखकर भी तुने उनका उपयोग नहीं किया तो मानव तन पाने का तुने क्या लाभ उठाया? यह मत भूल कि उसी का जीवन सफल माना जाता है जो परोपकार में प्रवृत्त रहता है। -आनन्द प्रवचन भाग ३ पृ० १६ १ डॉ० गंगाप्रसाद गुप्त 'बरसैया'-हिन्दी साहित्य में निबन्ध और निबन्धकार, पृ० ३३ से साभार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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