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________________ आचार्य प्रवर का अभिनन्दन १०१ शाम प्रत्येक युग और कोल में ऐसी महान विभूतियां जन्म लेती हैं जो अपनी प्रगल्भ प्रतिभा से विश्व को आलोकित करती हैं, वे अपने युग के सड़े, घिसे-पिटे विश्वासों, आस्थाओं और मान्यताओं तथा आचारविचार को नूतन क्रांति का जामा पहनाते हैं, जीवन के अन्तिम क्षण तक अन्य-विश्वासों, रूढ़ियों और अविवेक से जूझते रहते हैं, वे 'स्व' कल्याण की भावना और मनोकामना से ऊँचे उठकर 'पर' कल्याण की बात सोचते और करते हैं। जैनाचार्य इस ही साधना के साध्य हैं। उनकी इच्छा योग की साधना है। वे बल प्रयोग से परे हैं साधना की जाती है, बाहर से लादी नहीं जाती। आचार्य सम्राट का समग्र जीवन इसी साधना का साध्य है। स्थानकवासी समाज के युग पुरुषों की परम्परा में श्रीआनन्द ऋषि एक प्रमुख हैं। आपने समाज को नया विचार, नया चिन्तन, नयी वाणी और नयी भाषा दी है। वस्तु-तत्त्व को परखने की क्षमता एवं साहस आपका अलौकिक और अनूठा है । आपने प्रस्तुत समाज को प्रबुद्ध करने का नया मन्त्र और आह्वान दिया है । बिखरे समाज को एकता के सूत्र में बाँधने के प्रयास सराहनीय और श्लघनीय है। आचार्य-सम्राट प्रमुख व्याख्याकार, विचारक, चितक और भविष्य के दृष्टा हैं। आप उच्चकोटि के क्रिया-उद्धारक हैं। जीवन के पुराने रास्तों को बदलकर नये मार्ग स्थिर करने वाले क्रान्तिदूत हैं। सच तो यह है कि आचार्य प्रवर आगम वाङमय के गहन, गम्भीर परिशीलन करने वाले मनीषी हैं, जन-चेतना और जागरण के सुदृढ़ स्तम्भ हैं। उनका अभिनन्दन अपने आपमें एक अभिनन्दनीय कृत्य हैं। ऐसे पावन अवसर पर मैं श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ जयपुर की ओर से श्रद्धानवत हो चिरायु की कामना करता हूँ। ऐसे युगपुरुष, महामानव को शतशत कोटि प्रणाम । भा वा अलि डा० जयकिशनप्रसाद खण्डेलवाल [एम० ए० हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, अर्थशास्त्र प्राचीनभारतीय इतिहास एवं संस्कृति, एल० एल० बी० साहित्यरत्न, साहित्यालंकार, पी-एच० डी० संस्कृत विभाग, राजा बलवन्तसिंह कालेज, आगरा) आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी के ७५ वें जन्म दिवस पर प्रकाश्यमान अभिनन्दन ग्रन्थ का आयोजन सर्वथा श्लाघनीय है। वे एक महान् आत्मा हैं और विगत पैंसठ वर्ष से निरन्तर श्रमण-धर्म, संस्कृति एवं दर्शन की महती सेवा कर रहे हैं । ऐसी महान् आत्माएँ ऋषभ-पुत्र भरत के इस महान देश भारत में समय-समय पर जन्म लेकर संसारी जीवों को मोक्षमार्ग का दर्शन कराती हैं और उनके व्यवहारिक जीवन को भी संयमशील एवं उन्नत बनाने में उपदेश आदि के द्वारा सहायक होती है। श्रमण-वर्ग आचार्यजी के उपकार से कभी उऋण नहीं हो सकता, वस्तुतः हम सब उनके चिर-ऋणी बने रहना चाहते हैं। उनके जीवन में भक्ति, ज्ञान और कर्म रूप त्रिधारा का संगम हुआ है। वे तीर्थ स्वरूप है। ऐसे महान् कर्मयोगी के प्रति मैं श्रद्धा-विनत हो अपनी भाव-पूर्ण शब्दावलि अर्पित करता हूँ। पं० आशाधर जी के शब्दों में आचार्य श्री का व्यक्तित्व इस प्रकार है ज्ञानदिवाकर लोकालोकं, निजितकारातिविशोकं । बालत्वे संयम सुपालितं, मोह महानलमथन विनीतं ।। विनम्रता की मूर्ति, सहज भाव में स्थित उन ऋषिप्रवर आचार्यजी के प्रति पुनः भावांजलि अर्पित ! SNIU श्राआअभिसाचारात माया प्रवाअभि श्रीआनन्दग्रन्थ श्राआनन्द अन्य PMINMunavarv. . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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