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________________ Jain Education International म हा न हो ! मुनि श्री रूपचन्द्र जी 'रजत' [ राजस्थानी के प्रसिद्ध कवि, वक्ता एवं उग्र तपखी ] तुम हे पूज्य श्री आनन्द ऋषिवर श्रमण संघ के नाथ हो । आनन्ददायी नाम तेरा, जय विजय विख्यात हो ॥ सन्त हो, सुमहन्त हो तुम -- जैन जग जशवन्त हो । शान्त हो अरु दान्त स्थानकवासियों के कन्त हो । अमल अविचल पंथ के तुम सजग राही रूप हो । संसार सागर तारने को सफल नाविक रूप हो ॥ धन्य मात सतत तुमरे धन्य गुरु रतनेश को । धन्य मरुधर में दिनी पुनि, धन्य भारत देश को || आचार्य हो आराध्य हो, आदर्श गुण भण्डार हो । धर्मध्वज के कर दंडधारी भव्य हिय के सवर संयमवन्त हो, कवि कोविदों के शरणागतों की शान हो तुम "रजत" यश में हार हो । ☆ वंदना 0 प्राण हो । महान हो । महासती यशकंवरजी [ प्रसिद्ध व्याख्यात्री एवं विदुषी ] 2 J जिनका जीवन आनन्दमय है आनन्द का सर्जन होता है जिनके मंगलमय जीवन में संयम का नर्तन होता है । जिनके चरणों में भक्त अनेकों आत्मशुद्धि को करते हैं, आनन्दऋषि आचार्य प्रवर को शत शत वन्दन करते हैं ।। मुखमण्डल पर जो दिव्य प्रभा सबको नतमस्तक करती है। जिनकी अमृतमय वाणी ही लाखों के अघ हरती है । जिनके तप संयममय जीवन का सब अभिनन्दन करते हैं आनन्दऋषि आचार्यप्रवर को शत शत वन्दन भक्ति, ज्ञान और कर्मयोग की त्रिवेणी का लाखों जन का उद्धारक यह अद्भुत तीरथ युग-युग जीवें वर्ष हजारों यही कामना आनन्दऋषि आचार्यप्रवर को शत शत वन्दन , ✩ 20 करते हैं । संगम है 7 जंगम है । करते हैं करते हैं | For Private & Personal Use Only ॐ० INNOVATIENTENT ॐ श्री आनन्दत्र ग्रन्थ श्री आनन्द ग्रन्थ SAMAJALA www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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